Monday 17 September 2012

स्मृति के पन्नों से





मधुस्मृति के पुरातन लतिका  को
जब झक -झोर डाली
वृक्ष से पके फल की भाँति
कुछ मीठी यादें  टपक पड़ी।
एक पर जब नज़र डाला
तो स्मृति के कुछ पन्ने खुले ,
देखा ,
मेरा गाँव प्यारा प्यारा
औरमैं था  गाँव का प्यारा।

 जंगल के किनारे
 गाँव के छोटे -छोटे बच्चे
जंगल में करते थे सैर सपाटे,
भर जाते थे मन प्राण उनके
वनफूलों के सौरव से।
कभी चंचल -चपल खरगोश के पीछे   भागते ,
कभी ताली बजाकर पक्षी उड़ाते,
कभी झर -झर बहती झरनों के जल  में भीगकर
जलकेली का आनंद लेते।

पर जीवन की आपा धापी में
गुजर गये चालीश साल ,
न आनंद ले सके प्रकृति का
न जान सके दोस्तों का हाल।
कर्मक्षेत्र से अवकाश मिला तो
चले गाँव की ओर ,
दोस्तों से मिलने और
देखने जंगल में मोर।

गाँव गये , मिले दोस्त से ,
और बतियाये देर तक प्यार  से।
मैंने कहा ," तुम्हारी कमी खलती थी अरसों से "
दोस्त बोले " अच्छा लगा तुम लौट आये ,
पर मन न लगेगा तुम्हारा यहाँ
छोड़ गये थे जो गाँव तुम, अब वो कहाँ ?
जहाँ हम घूमते थे,
छुपा -छुपी खेलते थे ,
मिटगई सब वो गाँव की यादें
कट गये जंगल सारे ,
न पीक है , न कोई पक्षी हैं ,
पशु-पक्षी हीन होगये जंगल ,गाँव हमारे।
निरीह प्राणी सब भाग गये हैं
केवल दो ही प्राणी बचे हैं।
अब यहाँ
रात को सियार हुआ हुआ चिल्लाते हैं,
दिन में सफ़ेद पोश चीते
डरावनी आँख  दिखाकर हुंकार भरते  हैं ।
उनके उत्पात से गाँव परेशान है।"

देखा गाँव , देखा जंगल
देखा इनमें परिवर्तन ,
किन्तु कहता हूँ ,"यह अच्छा है,
कम से कम ये असली रूप में हैं,
कौन सियार और कौन है चीता
इसका तुम्हे पहचान है।

हम तो कंक्रीट के जंगल में रहते है
वहाँ नहीं पता,
 कौन है सियार और कौन है चीता,
सब पर लगा है मुखौटा
कोई किसी को नहीं पहचानता ,
वहाँ शेर हो या सियार
सब पीते हैं पानी एक घाट पर।
अपने आपको समझते हैं सबसे होशियार
और दिखाते हैं आपस में अटूट प्यार ,
किन्तु एक दूसरे पर झपट मारने की
मौके का करते हैं इंतजार।

हैं यहाँ कुछ चीते कुछ सियार
पर वहाँ हैं सब नील सियार
ये नील सियार हैं बहुरूपिये
मौके के अनुसार
बन जाते हैं नील सियार
कभी चीता ,कभी शेर , कभी बब्बर शेर
और करते हैं
भीत , त्रस्त , निरीह प्राणी का शिकार।


कालीपद "प्रसाद"
सर्वाधिकार सुरक्षित


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