Friday 3 October 2014

शुम्भ निशुम्भ बध :भाग ९

                                                  

        आप सबको शारदीय नवरात्रों  ,दुर्गापूजा एवं दशहरा की   शुभकामनाएं ! गत वर्ष इसी समय मैंने महिषासुर   बधकी  कहानी को जापानी विधा हाइकु में पेश किया था जिसे आपने पसंद किया और सराहा | उससे प्रोत्साहित होकर मैंने इस वर्ष "शुम्भ -निशुम्भ बध" की कहानी को जापानी विधा "तांका " में प्रस्तुत कर रहा हूँ | इसमें २०5    तांका पद हैं ! आज नवमी और दशमी दोनों है | दशहरा भी आज है ! इसलिए भाग ९ और भाग 10 (अन्तिम भाग ) आज ही दो अलग अलग पोस्ट प्रस्तुत कर रहा हूँ |आशा है आपको पसंद आयगा |नवरात्रि में माँ का आख्यान का पाठ भी समाप्त हुआ !


    भाग ८ से आगे
     १६३
दैत्यराज ने
दस भुजा से फेंका
चक्र सहस्र
बना चक्र का जाल
आच्छादित भवानी |
       १६४
माता दुर्गा ने
काट दिया चक्रों को
वाण वर्षा से
निशुम्भ देखकर
गरजे भयंकर |
       १६५
बध करने
महा चण्डिका देवी
वेग से दौड़ा
उत्तेजित असुर
हाथ में लिए गदा |
       १६६
देवी चंडी ने
काट डाली गदा को
तलवार से
महादैत्य क्रोधित
शूल हाथ में लिया |
      १६७
चंडिका ने भी
वेग से फेंका शूल
लक्ष निशुम्भ
शूल से छाती छेद
गिर पड़े निशुम्भ |
       १६८
दूसरा एक
महावली असुर
प्रगट हुआ
दैत्य वक्षस्थल से
निशुम्भ के ही जैसे |
      १६९
कहा उसने ....
खड़ी रह आता हूँ
कहाँ भागोगी ?
सुनकर उसको
जोर से हँसी देवी |
         १७० 
खड्ग से काटा
मस्तक असुर का 
गिरा भू पर
तदनंतर सिंह
उसको खाने लगा |
          १७१
शिवदूती ने
दुसरे दैत्यों का भी
भक्षण किया
कुमारी की  शक्ति से
दैत्य हत अनेक |
          १७२
माहेश्वरी ने
त्रिशूल द्वारा किया
शत्रु हनन
बाराही के थूथुन
किया दस्यु  हनन !
        १७३
वैष्णवी ने भी
टुकड़े टुकड़े की
बहु दैत्यों को
मन्त्रपूत जल से
ब्राह्मणी की निस्तेज
        १७४
ऐन्द्री के हाथ
 बज्र से हताहत
हाथ धो बैठे
महादैत्य अनेक
खुद प्रिय प्राण से |
         १७५
असुर नष्ट
कुछ बचाके प्राण
किया प्रस्थान  
कुछ बने भोजन
काली ,सिंह के ग्रास |
       १७६
शम्भू बध

निशुम्भ हत
सेना क्षत विक्षत
शुम्भ कुपित
शुम्भ किया गर्जन
इकट्ठा सेना फिर |
       १७७
कहा शम्भू ने
बल का अभिमान
झूठ मुठ का
मुझे न दिखा दुर्गे
दम्भ तोडूंगा तेरा |
        १७८
तू सोचती है
तू बड़ी मानिनी है
तू है निर्बला 
लडती है लेकर
दुसरे स्त्री सहारा |
        १७९
कहा देवी ने
दुष्ट ! मैं अकेली हूँ
देख ध्यान से
देख ,ये सब रूप
है विभूतियाँ मेरी  |
         १८०
तदनंतर
ब्राह्मणी शिव आदि
सब देवियाँ
देवी के शरीर में
शीघ्र लीन हो गई |
       १८१
अम्बिका एक
देवी ही रह गई
देख ऐ दुष्ट !
कहा देवी ने चीखा
मैंने लिया समेट |
      १८२
सब रूपों को
अब अकेली ही हूँ
युद्ध में खड़ी
संभल जा अब तू
आसन्न मृत्यु तेरा !


नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएं !
        
 क्रमशः

कालीपद "प्रसाद'
सर्वाधिकार सुरक्षित




2 comments:

  1. बहुत सुन्दर भक्तिमय प्रस्तुति...जय माता दी

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  2. आपका आभार कैलाश शर्मा जी !

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