Thursday 5 January 2017

ग़ज़ल

खुशबू नहीं शबाब नहीं अब गुलाब में
कैसे कहूँ कशिश भी नहीं अब शराब में |
काली घटा गरफ्त किया सूर्य रौशनी
वो तीक्ष्णता चुभन भी नहीं आबताब में |
जीवन कभी सुसाध्य नहीं, इक रहस्य है
इंसान मोह में सदा जीते सराब में |
बचपन यहीं कहीं खो गया, ढूंढने लगा
मैंदान में नहीं, मिला उसकी किताब में |
यदि कर्म पूजा है तो अलग पूजा क्या करे
होनी विलीन आदमी के ही सवाब में |
कितने सफ़ेद कितनी है काली मुद्रा चलन
अब कौन है यहाँ जो कहेगा हिसाब में |
नेता कहे भी तो कहे क्या जनता को पत|
श्रद्धया नहीं किसी को भी झूठे जवाब में |
शबाब-लालिमा ; सराब -मृगमरीचिका
सवाब -पूण्य कर्म
कालीपद ‘प्रसाद’

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