Monday 17 July 2017

गीतिका


न जानूँ मैं बताऊँ कैसे’, मन में जो दबाई है
जबां पर यह नहीं आती, मे’रे खूँ में समाई है |
नहीं था जीस्त में आराम, शाही खानदानों ज्यो
निभाया मैं प्रतिश्रुति और तुमने भी निभाई है |
अभी तुझको कहूँ क्या, तू बता क्यों बे-वफाई की
तेरी झूठी मुहब्बत में, प्रतिष्ठा सब जलाई है |
जनम भर हम रहेंगे साथ, वादा तो तुम्हारा था
अकेला छोड़ कर मुझको, बहुत तुमने रुलायी है |
दिखाती प्यार बेहद थी सदा, पर छोड़ी’ क्यों अब हाथ
बिना बोले चले जाना, यही तेरी बुराई है |
सदा तुम खेलती थी, गेंद बेचारा मेरा दिल था
मुहब्बत के वो’ खेलों में, वफ़ा तुमने भुलाई है |
गज़ब नाराजगी तेरी, उफनती वो पयस जैसा
हो’ जाती शांत जब, लगती है’ तू मीठी मलाई है |
कालीपद 'प्रसाद'

4 comments:

  1. बहुत ही लाजवाब.
    रामराम
    #हिन्दी_ब्लॉगिंग

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  2. संवेदनाओं से परिपूर्ण सराहनीय अभिव्यक्ति .

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