Saturday 30 August 2014

हमारे रक्षक हैं पेड़ !



                                                


एक थप्पड़ पड़ता है जब तुम्हे
आंसू तुम्हारा बह निकलता है ,
कुल्हाड़ी का एक घाव से पेड़ भी
सिसक सिसक कर रोता है |

तुम तो चिल्लाकर व्याथा अपनी
बढाकर ,सब को बता देते हो,
वाक् शक्तिहीन ,मूक है पेड़
उनकी व्याथा का तुम्हे अहसास हो

चुपचाप पीड़ा सह लेता है वह
कभी  शिकायत नहीं करता है,
आँधी तूफान अनावृष्टि में वह
हम सबके जीवन का रक्षक हैं |

जीवन रक्षक हैं, पालक हैं पेड़
सारे जग का कल्याण करता है ,
 स्वार्थ में पड़कर मुर्ख इंसान
पेड़ों को दुश्मन समझ रहा है |

तपती धुप हो या मुसलाधार वर्षा
पशु पक्षी पथिक को आश्रय देता है ,
भू -क्षरण और वायु प्रदुषण रोककर
पर्यावरण  को   शुद्ध   बनाता   है |

शहर  छोड़कर अब  फैलने लगा है
कांक्रीट का जंगल हर क़स्बा हर गाँव
एक दिन ऐसा आएगा ,जब तरसेंगे
मानव पाने को वृक्ष का शीतल छाँव |

धरती  लगती  है   सुन्दर  दुल्हन
ओड़कर सर पर हरा दुपट्टा
निर्दयी बनकर ना छीनो धरती से
अवनी माँ की लाज की दुपट्टा |

आओ करे प्रण,सब मिलकर आज
करेंगे रक्षा धरती की, हरयाली की
अपने जीवनकाल में रोपकर दस पौधे
अहसान उतारेंगे हम धरती माँ की |

कालीपद "प्रसाद "
सर्वाधिकार सुरक्षित
                                                                                                                                                                                                                              

Saturday 23 August 2014

क्या कहते हैं ये सपने ?



                                                                                      
गूगल से साभार



जब भी खो जाता हूँ
मैं नींद के आगोश में
सपने आकर चले जाते हैं
एक के बाद एक कतार में ,
किन्तु मुझे नहीं पता
क्या कहते हैं ये सपने |
बचपन बीता खेलकूद में
बेफिक्र मद मस्ती में
बिना पंख परवाज़ भरा
परियों के संगत में मैंने
किन्तु मुझे नहीं पता
क्या कहते हैं ये सपने |
उड़कर बैठे पेडों के ऊपर
नदी नालों को किया पार
मधुपान किया फुल फुल में
सैर किया हिमालय शिखर में
किन्तु मुझे नहीं पता कुछ
क्या कहते हैं ये सपने |
उम्र की सीडी ज्यों चडते गए
कुछ नए सपने आये और गए
यादों में कुछ ऐसा बसा नहीं
कुछ छाप नहीं छोड़ा जिंदगी में
इसीलिए मुझे नहीं पता कुछ
क्या कहते हैं ये सपने |
जिंदगी के इस पढाव में
बार बार क्यों आता है एक सपना
जाता हूँ प्रवास में मैं हरबार
खोकर आता हूँ सब सामान अपना
किन्तु कभी कुछ समझने ना दिया
क्या कहना चाहता है यह सपना |
ट्रेन से जाऊं या बस से जाऊं मैं
या जाऊं हवाई जहाज से ,
खो जाता है मेरा लगेज सब
मिले ना सामान,खोजूं चाहे लगन से|
कभी खो जाता है जुते मोज़े
कभी खो जाता है पेंट शर्ट,
कभी खो जाता है सब सामान
लौटता  हूँ घर खाली हाथ |
सपने सब पराये,नहीं हुए कोई अपने
नहीं पता मुझे, क्या कहते ये सपने|
लग रहा है मुझे भी अब
छुट रहा है कुछ ,इस जिंदगी में
उसको बताने केलिए आतुर है सपने,पर  
आ नहीं पाते ,रात कटती है जागरण में
इसीलिए  मुझे नहीं पता
क्या कहते हैं ये सपने |

कालीपद "प्रसाद "
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Tuesday 19 August 2014

मैं-धरा पर ...




चित्र गूगल से साभार


शाश्वत  है यह प्रश्न
जिज्ञासा है सनातन
“मैं “हूँ कौन इस धरा पर
संयोग हूँ,वियोग हूँ या विघटन ?

संयोग पञ्च तत्वों का
है मेरा उत्पत्ति का कारण
जब होता वियोग इनका
होता है मेरा विघटन |
‘मैं’ भौतिक पदार्थों का योग हूँ
शायद मैं भौतिक पदार्थ हूँ
पदार्थों का सूक्ष्मतम कण
‘मैं ‘ उदासीन परमाणु हूँ |

हाँ मैं परमाणु हूँ ,क्योकि
मुझमे शक्ति केंद्र आशा है (धनात्मक प्रोटोन )
मुझ में उतना ही निराशा है (ऋणात्मक इलेक्ट्रान )
सम शक्ति आशा निराशा करती है मुझे उदासीन (न्यूट्रल न्यूट्रान)|

होता है विस्फोट मुझ में तब
जब जंग करती आशा निराशा
विजयी होती है कोई एक जो प्रबल,   
आशा हो या फिर निराशा |

अहम् से अहंकार का अस्तित्व है
अहम् है ‘मैं’ का भी अस्तित्व आलय
कौन सा मेरा अस्तित्व है
कौन सा है मेरा विलय ?

“मैं “ माया मोह ,राग द्वेष से परे “ब्रह्म” हूँ
इनके जाल में फंसकर तड़पती मछली हूँ
रिश्ते नाते ,कुटूम्ब का जाल बिछा है
इसमें फंसकर अपना अस्तित्व भूल जाता हूँ |

अज्ञ-विज्ञ-विज्ञान के ज्ञाता
सब मानते हैं ,कोई है विधाता
मूर्त हो या सूक्ष्म से सूक्ष्मतम रूप
मानु क्या हिग्स कण को या मानु विश्वरूप ?

हिग्स कण से भी सूक्ष्म कण है
क्या मैं वो सूक्ष्मतम कण हूँ ?
हूँ मैं अदृश्य ,नाम मात्र अस्तित्व शायद
शक्ति रूप हूँ, हिग्स कण में निहित हूँ !

फिर भी मैं ’ब्रह्मरूप “की तलाश में हूँ 
इस जग में आकर मैं भटका हुआ हूँ
ज्ञानी गुणी दोस्त मेरे ,मुझे बता देना
कहाँ है मेरा अपना घर ,मैं कौन हूँ ?

कालीपद "प्रसाद"
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Friday 8 August 2014

मेघ आया देर से ......


                                                



आषाढ़ गया सुखा सुखा, किसान हुआ बेहाल
मेघ आया देर से पर,सावन को कर दिया निहाल |

दिन को बरसे, रात को बरसे,बरसे घंटों लगातार
खुशियों के आलम छाये ,मेंढक गाये गाना टर-टर
चिड़िया छुप गयी घोंसलों में,भूख से शावक बेहाल
मेघ आया देर से पर,सावन को कर दिया निहाल |

रिमझिम रिमझिम मेह गिरे,धरती ने प्यास बुझाया
किसान ख़ुशी से झूम उठा,नरम भूमि में हल चलाया
तृप्त भूमि पर जाग उठे, फिर छोटे छोटे नौ-निहाल
मेघ आया देर से पर,सावन को कर दिया निहाल |

सुबह से शाम खेत में किसान,घुटना डूबे पानी में
एक हाथ में धान का रोपा,छाता धरा है दुसरे हाथ में
हर कष्ट को सह्लेता है,सोचकर होगा भविष्य खुशहाल
मेघ आया देर से पर,सावन को कर दिया निहाल |

कहीं हल बैल खींच रहा है,कहीं चल रहा है ट्रेक्टर
खेत जोतता ,बीज बोता ,फिर फसल काटता ट्रैक्टर
मजदूर और बैल को अब,ट्रैक्टर ने कर दिया बेकार
मेघ आया देर से पर,सावन को कर दिया निहाल |


बच्चों की छुट्टी ख़तम,लाद लिया बस्ता पीठ पर
रेनकोट पहन लिया कोई,छाता है किसी के सर पर
तेज बारिश ने भिगोया सबको,भीगकर हुआ बुरा हाल
मेघ आया देर से पर,सावन को कर दिया निहाल |

कालीपद "प्रसाद "
सर्वाधिकार सुरक्षित

Wednesday 6 August 2014

सावन का आगमन !***



                                                                 
                                                                      
                                                         
                                                                       

वैशाख गया ,जेष्ट गया
आषाढ़ भी गया,मेघ ना आया
आकाश की ओर ताककर
किसान बहुत निराश हुआ |

पूजा हवन दुआओं का दौर
चलने लगा मंदिर मस्जिदों में
प्रसन्न न हुआ इन्द्र देवता
पूजा प्रार्थना व दुआओं से |

सावन का जब हुआ आगमन
स्वच्छ था तब भी नील गगन
अचानक एक काली रात्रि में हुआ 
काले बादल का चुपचाप पदार्पण |

ना दामिनी दमक, ना सिंह गर्जन
रिमझिम रिमझिम वर्षा होने लगी
नव दुल्हन ज्यों सिसकते रोते
आवाज़ बिन चुपचाप ससुराल चली |

खुश था या दुखी था बादल
किसी को कुछ भी पता न रहा
बिना विश्राम के दस दिन तक
विरही बादल लगातार रोता रहा |

न बाढ,न तूफान,न नदी में उफान
धरती ने हर बूंद को पी लिया ,
सूखे पड़े बंजर जमीन में भी
नव पल्लव से हरियाली छाया |

मन्द मन्द पश्चिमी बयार
हरियाली पर बहने लगा
दुल्हन बनी धरती के वसन में
हरा रंग का आधिपत्य रहा |

कालीपद "प्रसाद"
सर्वाधिकार सुरक्षित