चित्र गूगल से साभार |
जानती थी मैं
जीवन एक संघर्ष है ,
हर युद्ध के पहले
युद्ध की घोषणा करना पड़ता है।
पर पशुयों को यह नियम पता कहाँ ?
बिना चेतावनी के मुझ पर हमला किया ,
हिम्मत नहीं हारा मैंने ,संघर्ष किया
पूरी शक्ति से,
अपने को बचने के लिए
उन नर पशुयों से।
जब तक थी चेतना लडती रही,
चेतना हीन हुआ जब शरीर
क्षत -विक्षत किया
व्यभिचार किया
अपवित्र किया
फिर फेंक दिया मेरा मृतमान शरीर ,
घृणा ,वितृष्णा से
मैंने छोड़ दिया शरीर ।
मैंने देखा, सहा
दुराचारियों का अत्याचार ,
दुःख है मुझे ...
धर्म के ठेकेदार मुझे ही मानते हैं जिम्मेदार ।
पूछती हूँ तुमसे ऐ छद्मवेशी !
बोलो दिलपर हाथ रखकर
"क्या मानते उनको जिम्मेदार
यदि तुम्हारी बीबी, बेटी से होता बलात्कार ?"
बलात्कारी की न माँ , न बहन ,न बेटी होती है ,
हवस के अंधे के सामने ,केवल एक औरत होती है।
ठेकेदारों !
धरम के आड़ लेकर शोषण किया नारी को
सती बताकर शांत किया
अहल्या ,दौपदी, कुन्ती ,तारा , मन्दोदरी को।
नहीं बनना सीता , न ऐसी सती
न सुनना है धर्म की दुहाई ,
जितना किया है शोषण अबतक
करना होगा उसकी भरपाई।
देवी बनाकर किया पूजा ,
बनाकर पत्थर,मिटटी की मूरत ,
बना दिया गूंगी, बहरी ,अंधी,
अबला और अनपढ़ मुरख।
नहीं सहेगी कोई अत्याचार अब
अबला नहीं नारी,
छोड़ लज्जा का आभूषण
अब उठा लिया तलवारी।
शब्दों के भूल-भुलैया में
अब न फँसेगी नारी ,
धर्म का हो या समाज का
अन्धविश्वास का खात्मा है जरुरी।
सती .........? देवी ...........?
छलना नहीं तो और क्या है ?
सदियों से नारी का शोषण
ठेकेदारों ने ऐसा ही किया है।
थी मैं अनाम ,हूँ मैं अनाम
निर्भय ,किसीने कहा मुझे दामिनी
बहनों ! जागो ,उठो ,लड़ो , निर्भय हो
मांगो न्याय ,तुम ही हो दामिनी।
रचना : कालीपद "प्रसाद"
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