मेरे विचार और अनुभुतियों की गुलिस्ताँ में आपका स्वागत है |.... ना छंदों का ज्ञान,न गीत, न ग़ज़ल लिखता हूँ ....दिल-आकाश-उपज,अभ्रों को शब्द देता हूँ ........................................................................ ............. इसे जो सुन सके निपुण वो हैं प्रवुद्ध ज्ञानी...... विनम्र हो झुककर उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ |
Thursday, 27 October 2016
Saturday, 22 October 2016
सरहद
हम हैं जवान रक्षक देश के, अडिग जानो हमारा अहद,
प्रबल चेतावनी समझो इसे, भूलकर पार
करना न सरहद |
अत्याचार किया अबतक तुमने, हमने भी
सहन किया बेहद,
सर्जिकल का नमूना तो देखा, अब तो
पहचानो अपनी हद |
मानकर तुम्हे पडोसी हमने, दिया तुम्हे
समुचित मान ,
उदारता को तुम कमजोरी समझे, हमारी
शक्ति का नहीं ज्ञान |
याद करो इकहत्तर की लड़ाई, बांग्ला देश
हुआ था तब आज़ाद,
अब लड़ोगे तो जायगा बलूच हाथ से, तुम
हो जाओगे बर्बाद |
लड़ाई की धमकी देतो हो किन्तु, अंजाम
का कुछ नहीं है ज्ञान,
नक़्शे पर कहीं नहीं होगा तब, पाकिस्तान
का नामो निशान |
सोचो, बदल जाय माली अगर, कब्जे वाले पश्चिम
काश्मीर का
क्या होगा अंजाम तब , पाक पोषित घृणित
आतंक का ?
भोले भाले नौजवान आते, सजोये अपने
सपनों की पालकी
पिलाकर जेहाद का भ्रमित विष, उन सबको
बना देते हो आतंकी |
सरहद पार भारत में आकर वे जब करते हैं
आतंकी उत्पात
अकाल मृत्यु सब करते हैं प्राप्त,
होता परिवार पर उल्कापात |
सुनो, संभल जाओ, अभी समय है, बन जाओ
अब थोड़ा अकल्मन्द
खड़े वीर जवान सरहद पर हमारे, अभेद्य,
सुरक्षित है हमारी सरहद |
© कालीपद ‘प्रसाद’
Wednesday, 19 October 2016
करवा चौथ
करवा चौथ
समाज में कुछ
है आस्था
उससे ज्यादा
प्रचलित है व्यवस्था,
प्रगतिशील
वैज्ञानिक युग में
ज्ञान का
विस्फोट हो चुका है
उसकी रौशनी में
छटपटा रही है
कुछ आस्था
तोड़ना चाहती है
पुरानी व्यावस्था |
मानते हैं सब
कोई ..,
कुछ रस्मे, रीति-रिवाजें
मुमूर्ष साँसे
गिन रही हैं,
फिर भी उन्हें
जंजीर में
जकड़ी हुई है जर्जर
व्यवस्था |
करवा चौथ ...
प्रिया का
प्रेम प्रदर्शन
कीमती उपहार
देते हैं साजन,
शायद यही है
इस त्यौहार का जीवित
रहने का कारण |
क्योकि
मानते हैं
ज्ञानी, गुणी, ऋषि, मुनि
विधाता ने लिख
दिया आयु
निश्चित कर
दिया स्वांस की वायु
यह अज्ञेय,
अपरिवर्तनीय है
जन्म और मृत्यु
की निश्चित दुरी है |
पत्नी की सुनकर
विनती
क्या विधाता कर
देता
पति की लम्बी
आयु, और
दुबारा लिखता
है उसकी परमायु ?
मन, विवेक को यकीं
नहीं,
पर मजबूर हैं, पत्नियाँ
रस्मे निभाती हैं
दिन बार भूखी रहती है
छलनी से चाँद देखकर ही खाती है
न चाहते हुए
खुद को, विवेक को छलती है
दिन बार भूखी रहती है
छलनी से चाँद देखकर ही खाती है
न चाहते हुए
खुद को, विवेक को छलती है
यही समाज की
अंधी व्यवस्था है |
@ कालीपद ‘प्रसाद’
Tuesday, 18 October 2016
मुक्तक
स्वदेश :
जन्मभूमि को कभी भूलो नहीं, यही है स्वदेश
पढ़ लिख कर हुए बड़े, तुम्हारा परिचित परिवेश
एक एक कण रक्त मज्जा, बना इसके अन्न से
कमाओ खाओ कहीं, पर याद रहे अपना देश |
विदेश :
विदेश का सैर सपाटा सब सुहाना लगता है
नए लोग, परिधान नई, दृश्य सबको भाता है
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जिसके मन में यही भावना
विदेश भी उस इंसान को अपना वतन लगता है |
गूगल ,फेसबुक ,व्हाट्स अप आज सबको प्रिय है
इसमें अधिक से अधिक दोस्त बनाने की होड़ है
आत्म केन्द्रित नई पीढ़ी की यही विडम्बना है दोस्त
पड़ोस के फ्लैट में कौन है ,न जानते हैं न पहचानते है |
कालीपद 'प्रसाद'
परिष्कृत कर लो अपने पुराने शब्दकोष को
कोष से बाहर करो सब नकारात्मक शब्दों को
“असमर्थ,अयोग्य हूँ” का सोच है प्रगति के बाधक
जड़ न जमने दो मन में कभी इन विचारों को |
XXXXXX
हर इंसान में “डर” है दो धारी तलवार
यही उत्पन्न करता है नकारात्मक विचार
कभी-कभी इंसान को रोकता है भटकन से,किन्तु
इंसान के प्रगतिशील कदम को रोकता है हरबार | गूगल ,फेसबुक ,व्हाट्स अप आज सबको प्रिय है
इसमें अधिक से अधिक दोस्त बनाने की होड़ है
आत्म केन्द्रित नई पीढ़ी की यही विडम्बना है दोस्त
पड़ोस के फ्लैट में कौन है ,न जानते हैं न पहचानते है |
कालीपद 'प्रसाद'
Thursday, 6 October 2016
नौ दुर्गा -प्रार्थना
गीतिका ----नौ दुर्गा –प्रार्थना
बहर: २१२२ २१२२ २१२२ २१२
रदीफ़ : चाहिए ; काफिया : “आ”
नौ दिनों की माँग भक्तों की माँ सुनना चाहिए
वे बुलाते तो माँ उनके घर में आना चाहिए |
शांति की देवी तू, संकट मोचनी दुख नाशिनी
भक्त को सुख शान्ति का वर दान देना चाहिए |
खड्ग हस्ता, ढाल मुद्गर, शूल अस्त्रों धारिणी
विध्न वाधा नाश माँ इस वक्त होना चाहिए |
अम्बे गौरी श्यामा गौरी, तुम विराजत सब जगत
शत्रु घाती दुख विनाशी, तेरी करुणा चाहिए |
धूप कुमकुम पुष्प चन्दन से किया माँ आरती
भूल चुक जो भी मेरा सब माफ़ होना चाहिए|
© कालीपद ‘प्रसाद’
Monday, 3 October 2016
गीतिका
ना करो ऐसे कुछ, रस्म जैसे निभाती हो
आरसी भी तरस जाता, तब मुहँ दिखाती हो |
आरसी भी तरस जाता, तब मुहँ दिखाती हो |
छोड़कर तब गयी अब हमें, क्यों रुलाती हो
याद के झरने में आब जू, तुम बहाती हो |
याद के झरने में आब जू, तुम बहाती हो |
रात दिन जब लगी आँख, बन ख़्वाब आती हो
अलविदा कह दिया फिर, अभी क्यों सताती होजिंदगी जीये हैं इस जहाँ मौज मस्ती से
अलविदा कह दिया फिर, अभी क्यों सताती होजिंदगी जीये हैं इस जहाँ मौज मस्ती से
गलतियाँ भी किये याद क्यों अब दिलाती हो |
प्रज्ञ हो जानती हो कहाँ दुःखती रग है
शोक आकुल हुआ जब, मुझे तुम हँसाती हो |
शोक आकुल हुआ जब, मुझे तुम हँसाती हो |
कहती थी मुँह कभी फेर लूँ तो तभी कहना
दु:खी हूँ या खफ़ा, तुम नहीं अब मनाती हो |
दु:खी हूँ या खफ़ा, तुम नहीं अब मनाती हो |
वक्सिसे जो मिली प्रेम के तेरे चौखट पर
भूलना चाहता हूँ, लगे दिल जलाती हो
भूलना चाहता हूँ, लगे दिल जलाती हो
कालीपद ‘प्रसाद
Subscribe to:
Posts (Atom)