इंसान इस दुनियां में कहाँ से आता है ,मृत्यु के बाद कहाँ जाता है ,यह एक रहस्य है। पर जितना दिन यहाँ रहता है ,रिश्ते नातों में बंध जाता है।सबको छोड़कर जाने में उसे दुःख होता है लेकिन जाना तो है। हर जाने वाला व्यक्ति ,पीछे रहनेवाले लोगो को अपनी अनुभव की कुछ बाते बता कर जाना चाहता है। ऐसे एक मुमूर्ष व्यक्ति की अंतिम इच्छा है यह।
संध्या से पहले भी कभी,
सवेरा हुआ था,
अमानिशा के पहले भी कभी ,
पूर्णमासी का चाँद खिला था।
सूरज का अंतिम किरण है यह ,
जो सवेरे उगा था ,
उद्दीप्त शिखा देख रहे हो, जिस दीपक का तुम
यहीं इसका जीवन-दीप जला था।।
संध्या को इस दीप को बुझाकर ,
सौ-सौ दीप जलाना है।
अमानिशा में चाँद को मिटाकर
असंख्य मोती चमकाना है।
प्रभात तारा चमक रहा है अब
बनकर संध्या का तारा।
मृत्यु मना रही महोत्सव आज ,देख
अस्तमित जीवन का शुक तारा।
विदा कर दो मुझ को ऐ वन्धु
अब है जीवन का अंतिम वेला।
चल रहा हूँ इस दुनियां से अब
जहाँ देखने आया था मैं मेला।
इस जनम में हो ना सका वन्धु
कुछ उपकार तुम्हारा।
पुनर्जनम में विश्वास हो तो ,
होगा मिलन मेरा तुम्हारा।
मेरी सौगंध तुमको ,मेरे लिए
यदि तुम आहे भरो,
मधुर मुस्कान बिखेरो एकबार
आंसुयों से ना आंखें भरो।
आसुयों के एक बूंद की कीमत
मैं ना दे पायूँगा,
सिसकियों से भरी आहों को
मैं ना गिन पाऊंगा।
रचना : कालीपद "प्रसाद'
सर्वाधिकार सुरक्षित
संध्या से पहले भी कभी,
सवेरा हुआ था,
अमानिशा के पहले भी कभी ,
पूर्णमासी का चाँद खिला था।
सूरज का अंतिम किरण है यह ,
जो सवेरे उगा था ,
उद्दीप्त शिखा देख रहे हो, जिस दीपक का तुम
यहीं इसका जीवन-दीप जला था।।
संध्या को इस दीप को बुझाकर ,
सौ-सौ दीप जलाना है।
अमानिशा में चाँद को मिटाकर
असंख्य मोती चमकाना है।
प्रभात तारा चमक रहा है अब
बनकर संध्या का तारा।
मृत्यु मना रही महोत्सव आज ,देख
अस्तमित जीवन का शुक तारा।
विदा कर दो मुझ को ऐ वन्धु
अब है जीवन का अंतिम वेला।
चल रहा हूँ इस दुनियां से अब
जहाँ देखने आया था मैं मेला।
इस जनम में हो ना सका वन्धु
कुछ उपकार तुम्हारा।
पुनर्जनम में विश्वास हो तो ,
होगा मिलन मेरा तुम्हारा।
मेरी सौगंध तुमको ,मेरे लिए
यदि तुम आहे भरो,
मधुर मुस्कान बिखेरो एकबार
आंसुयों से ना आंखें भरो।
आसुयों के एक बूंद की कीमत
मैं ना दे पायूँगा,
सिसकियों से भरी आहों को
मैं ना गिन पाऊंगा।
रचना : कालीपद "प्रसाद'
सर्वाधिकार सुरक्षित