Sunday 28 April 2013

जीवन संध्या

 इंसान इस दुनियां में कहाँ से आता है ,मृत्यु के बाद कहाँ जाता है ,यह एक रहस्य है। पर जितना दिन यहाँ रहता है ,रिश्ते  नातों  में बंध  जाता है।सबको छोड़कर जाने में उसे दुःख होता है लेकिन जाना तो  है।  हर जाने वाला व्यक्ति ,पीछे रहनेवाले लोगो को अपनी अनुभव की कुछ बाते बता कर जाना चाहता है। ऐसे एक मुमूर्ष व्यक्ति की  अंतिम इच्छा है यह।






संध्या   से   पहले   भी  कभी,
                             सवेरा   हुआ  था,
अमानिशा के पहले भी कभी  ,
             पूर्णमासी का चाँद खिला था।
सूरज का अंतिम किरण है यह ,
                            जो सवेरे  उगा था ,
उद्दीप्त शिखा देख रहे हो, जिस  दीपक का तुम
यहीं इसका  जीवन-दीप जला    था।।

संध्या को  इस दीप को बुझाकर ,
                            सौ-सौ दीप जलाना है।
अमानिशा में चाँद को मिटाकर
                     असंख्य मोती चमकाना है।
प्रभात तारा चमक रहा है अब
                       बनकर संध्या का तारा।
मृत्यु मना रही महोत्सव आज ,देख
                 अस्तमित जीवन का शुक तारा।


 विदा कर दो मुझ को ऐ वन्धु
                    अब है  जीवन का अंतिम वेला।
चल रहा हूँ इस दुनियां से अब
                       जहाँ देखने आया था मैं मेला।
इस जनम में हो ना सका वन्धु
                                  कुछ उपकार तुम्हारा।
पुनर्जनम में  विश्वास हो तो ,
                             होगा मिलन मेरा तुम्हारा।


मेरी सौगंध तुमको ,मेरे लिए
                                  यदि तुम आहे भरो,
मधुर मुस्कान बिखेरो एकबार
                            आंसुयों  से ना आंखें भरो।
आसुयों के एक बूंद की कीमत
                                         मैं ना दे पायूँगा,
सिसकियों से भरी आहों को
                                     मैं ना गिन पाऊंगा।



रचना : कालीपद  "प्रसाद'
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Tuesday 23 April 2013

बे-शरम दरिंदें !

बलात्कार! ...बलात्कार!! ......बलात्कार!!!  हर जगह यही शब्द गूंज रहा है ,दिमाग झन्ना गया ,दिल दहल गया। मन में  गुस्सा ,आक्रोश भर गया , यही भावना घनीभूत होकर शब्द रूप लेकर बह निकला  उन बे- शरम दरिंदों को तिरष्कृत करने। 



सुबह अख़बार पढता हूँ

समाचार ?.... ......बलात्कार

टी व्ही के कोई भी चेनेल देखूं

समाचार? .....हत्या, बलात्कार,

कभी मासूम बच्ची उम्र पांच साल ,

कभी सात कभी तेरह कभी अस्सी साल,

बच्ची ,युवती ,बूढी ,सब हैं हवस के शिकार।

कौनसा उम्र बचा है बलात्कारियों से ?

समाज शास्त्रियों ! जरा पता लगाओ बारीकी से।  

जरा बताओ उन बेशरम दरिंदों को

पांच ,सात साल की बच्ची तो  तुम्हारी बेटी होगी

अस्सी साल की औरत, तुम्हारी माँ या दादी होगी

माँ ,बेटी  तुल्यों  से बलात्कार ? तुम्हे शर्म नहीं आती है ?

क्यों बाहर का हवा दूषित करते हो ? वे तो तुम्हारे घरमे है।

तुम मानव हो ? दानव हो ? या नर-पशु हो ?

मानव ,दानव के परिवार में माँ ,बहन होती है

पशुयों में ऐसा कोई आचार विचार नहीं है।

हाँ  ,तुम नर-पशु हो ,पशु बलि में चढ़ाया जाता है

तम्हे भी चढ़ना होगा ,मानवता के बलिवेदी पर

खानी होगी पीठ पर गोली  या झुलना होगा फांसी के झूले पर। 

क्योकि,

 तुमने नासूर ज़ख्म दिया है

मानवता के तन मन पर।

तन का ज़ख्म तो भर जायगा

मन का जख्म का क्या होगा ?

कराह रही है तुम्हारी वहशीपन देखकर

केवल पीडिता नहीं ,

बेहाल है तुम्हारी माँ ,बहन रो रो कर।

माँ तुम्हारी सोचती होगी ...............

'गर्भ में क्यों ना ख़त्म कर दिया ,

सद्यजात शिशु को क्यों नहीं जहर पिला दिया ?

ना मुझे यूँ शर्मिन्दगी झेलनी  पड़ती

ना यूँ घुट घुट कर  मौत का इन्तेजार करनी पड़ती।  '

पर वे ये पीड़ा बता नहीं पा रही है

ना उसे सहन कर  पा रही है

केवल शर्म से मुहँ ढक  कर 

तुम्हारे या खुद की मौत का इन्तेजार कर रही है।



रचना : कालीपद "प्रसाद"

          सर्वाधिकार सुरक्षित ..


 



Friday 19 April 2013

तुम अनन्त

हिन्दू  धर्म में  श्रीराम और श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का मानव रूप में सर्वोतम अवतार माना  गया है।  इसलिए उन्हें भगवान  के रूप में पूजा जाता है लेकिन भगवान का क्या वास्तविक  स्वरुप है कोई नहीं जानता। सबके मन में एक ही जिज्ञासा है- " भगवान का  प्राकृतिक रूप क्या है ?  कहाँ रहते हैं ?" यही शाश्वत प्रश्न प्रार्थना के माध्यम से स्वयं ईश्वर  से ही पूछा गया है ।


चित्र गूगल से साभार 


    तुम अनन्त ,तुम दिगन्त , सर्वव्यापी  सर्वेश्वर
    तुम ही संभाव्य ,सम्भावना , तुम ही हो सिरजनहार।

    अन्तर्निहित शक्ति हो तुम ,तुम ही प्रेरणा ,तुम ही कर्ता
    तुम ही दाता ,दान का द्रव्य हो, तुम ही हो स्वीकार  कर्ता।

   सर्व शस्त्र-धारक हो तुम , सर्वस्वरुप ,सर्व शाक्तिमान हो
   तुम ही शासक,हम शासित , हमपर तेरी अनुकम्पा हो।

   हुकूमत तेरी चलती है जग में ,   कुछ करो कृपा हम पर
   तुम्हे कहते है जगत्पति परमेश्वर,जग श्रष्टा जगदीश्वर।

   मुझे बताओ हे विधाता! कौन हो तुम? कैसे हो ? रहते हो कहाँ ?
   ढूंढते फिरते हम तुम्हे ,मंदिर ,मस्जिद ,हर धर्म के इबादत जहाँ।

   हवा हो कि पानी हो या विजली या  बादल का गर्जन हो ?
    नील गगन अन्तरिक्ष हो या हरित अलंकार से सजी धरती हो ?

    धधकते सूरज की ज्वाला हो या चन्द्रकिरण की शीतलता हो ?
    नंगे-ख़ल्क की भूख की तड़फ हो या शहंशाहों की विलासिता हो ?

    मन की भाव हो या भावना हो ,है क्या कोई वाह्य  स्वरुप  ?
    जानू मैं कैसे तुम्हे ? जब  देखा   नहीं   कभी  कोई रंग रूप।

    पूजा क्या है ? नहीं पता... ,पर  श्रद्धा- भक्ति है मेरे पास
    गुणगान करना पूजा है तो ..... , सही शब्द नहीं मेरे पास।

    कर्मकाण्ड,विधि विधान छोड़,श्रद्धा सुमन अर्पण करता हूँ चरणों में
    अकिंचन मान स्वीकार करना इसे ,सिक्त है यह कोमल भावनायों  में।

   क्या करूँ अर्पित पूजा में ,तन-मन-प्राण सबकुछ दिया तुम्हारा 
   इस जगत में जो कुछ है , उसमे कुछ भी तो  नहीं है  मेरा।

   जीव- निर्जीव  ,ग्रह नक्षत्र सब, चलरहे है मर्जी से तम्हारी
   साँस  प्रसाँस  भी नहीं चलती मेरी ,जब तक न हो मर्जी तुम्हारी।

   तब क्यों हठ लगाए बैठे हो  , यह कैसा है न्याय तुम्हारा
   जबतक कुछ ना अर्पित करू तुम्हे ,नहीं दोगे  मुझे सहारा?

  सोचकर बताओ हे मुरारी ,जो कुछ है जग में ,उसमे क्या है मेरा
 जिसको लेकर, हठ टूटेगा   और  दिल खुश होगा तुम्हारा।

 जो कुछ है सबकुछ ले लो ,अर्पित है तुम्हे ,मैं भी तुम्हारा
भूल ना जाना ,मुहं मत फेरना, तुम्ही हो नाविक,मेरा सहारा।


रचना : कालीपद "प्रसाद"
          सर्वाधिकार सुरक्षित  
    
   

Tuesday 16 April 2013

"मेरे विचार मेरी अनुभूति " ब्लॉग की वर्षगांठ

    समय तो अपनी गति से ही आगे बढ़ता है लेकिन हमें लगता है कि समय बहुत जल्दी बीत  गया। मुझे भी आज  ऐसा लग रहा  है  कि एक साल कितने जल्दी बीत गया।  गत वर्ष सोलह अप्रैल को मैंने अपना ब्लॉग "मेरे विचार मेरी अनुभूति "शुरू किया था। समझ में नहीं आ रहा था कि पहले पोस्ट में  क्या लिखूं ? तब ईश्वर  को याद किया, लेकिन ईश्वर कौन है ? कहाँ रहते हैं? कैसा स्वरुप है ? कुछ पता नहीं। तभी मन में विचार आया , क्यों न यही प्रश्न ज्ञानी-गुणीजनों से पूछा जाय ? बस इसीपर कुछ पंक्तियाँ लिखकर पोस्ट  किया था परन्तु किसीने शायद नहीं देखा क्योंकि मैंने इसे साझा नहीं किया था। मुझे साझा करना नहीं आता था इसलिए साझा नहीं किया था।  हँसी की बात है न ? मुझे भी हँसी आती है पुरानी  बात याद करके। खैर सत्रह अप्रैल को मैंने "शिर्डी साईँ बाबा " के एक आरती(भजन) पब्लिश किया। उसे भी किसी ने नहीं देखा, कारण वही कि मैंने साझा नहीं किया था। आज एकवर्ष पूरा होने पर मैं उसी आरती को फिरसे पब्लिश कर रहा हूँ और साझा भी कर रहा हूँ। इस एक वर्ष में  कई लोगो से टेलेफोन पर बातचीत हुई। रविकर जी ,धीरेन्द्र सिंह भदौरिया जी , रश्मि प्रभाजी , कुमार कुसुमेश जी , पूरण खंडेलवाल जी के सुझाव से ब्लॉग को विकसित करने और सही रूप देने में मदत मिली।मैं उन सबका आभारी हूँ।इस एक वर्ष में जिन लोगों ने मेरे ब्लोग्स को अनुशरण किया ,जिन्होंने मेरी रचनायों को पढ़ा और सलाह दी , आलोचना और सृजनात्मक टिप्पणियां देकर मुझे प्रोत्साहित किया  , उन सबको मैं  तह ए  दिल से धन्यवाद  देता हूँ  । आशा करता हूँ आगे भी आपकी अनुकम्पा बनी रहेगी। नए पाठकों और  ब्लोगरों का  हमेशा मेरे ब्लॉग में हार्दिक स्वागत है। आप जैसे  प्रबुद्ध पाठकों की सृजनात्मक टिप्पणियां और आलोचना ही मेरा मार्ग दर्शक हैं। आपके सहयोग की कामना हमेशा करता रहूँगा। अब आप ब्लॉग  की वर्षगांठ पर "शिरडी साईँ बाबा " की आरती को पढ़िए। इसको पढना ही प्रार्थना करना है। नवसंवत्सर में "साईं बाबा "  आप और हम ,सबका कल्याण करें। 

 
सभी चित्र गूगल से साभार 

आओ साईं नाथा , आओ साईं नाथा ,
मेरे मन मंदिर में बसों साईं नाथा .
मुझको  अपने शरण में ले लो साईं नाथा
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा ! 

ज्ञान हीन,  भक्ति  हीन, तंत्र मंत्र हीन मैं
क्या करूँ, कैसे पूजूं , समझ नहीं आता
निज इच्छा करो कृपा दयामय दाता    
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

दीनबंधु करुनासिंधु भक्त पीड़ा हन्ता
तुम ही बंधू, तुम ही सखा, तुमही माता-पिता
जग में  सभी  भीखारी है   दाता   साईं नाथा
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

तुम्ही हन्ता तुम्ही पालक तुम्ही रचयिता
तुम्ही हर तुम्ही हरि तुम ही हो  विधाता  
जग में  तेरी इच्छा से ही सब कुछ होता
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

जप तप हीन मैं कुछ नहीं आता
अहर्निशी अनगिनित गलती मैं करता
माफ करो गलती मेरे तुमहो विधाता
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

लीला धर  लीला हेतु फकीर  रूप  धरा
तेरी कृपा पाकर रंक कुबेर बन गया
जो  जैसा  मागें  वह  वैसा  ही  पाता
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

राजा या रंक हो  साधू या संत हो ,
साईं तेरी दरवार में सदा  चाकरी   करता
तुही प्रेरणा तुही कर्ता  तुही फल  दाता
 साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

दुःखहारी  भयहारी  पीड़ा हारी  साईं
मेरी पीड़ा हरो तुम अन्तर्यामी साईं
कोई नहीं और मेरा किस से कहूँ  व्याथा
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !




फल-फूल, दुर्बा-दल  से पूजूं साईं नाथा
पञ्च नदी जल मैं कहो कहाँ से लाता
अश्रु जल से चरण तुम्हारे धोउं साईं नाथा
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !


Rachna : Kalipad "Prasad"    (कालीपद "प्रसाद ")
© All rights reserved


 

  

Monday 8 April 2013

सपना और तुम


सपने में तुम 



दिन भर की थकान से तन चूर चूर हो जाता है,
साँझ ढले विस्तार पर पड़ते ही आँख लग जाती है।
सपने में आहट तुम्हारे आने का एहसास होता है,
पायल की झंकार तुम्हारी  द्वार की घंटी बजाती  है। 
बदन की खुशबु तुम्हारे  ,मुझको मदहोश करती  है,
नयन तुम्हारे अनंग का धनुष ,घायल  मुझे करती है। 
बालों में फिरती कोमल अँगुलियों का स्पर्श तुम्हारी
प्रकम्पित ,कामित तन मन को शीतल करती है।
मखमली कोमल होटों का स्पर्श, मुझको वर्षों याद है
बड़ी जतन  से आज तक मैंने ,उसे जिन्दा रखा है।
चाहता हूँ बार बार करूँ एहसास ,सुनु मधुर वाणी ,
पर क्यों जाती हो ,ख़्वाब तोड़कर , मुझे होती है हैरानी।
बिजली की चमक ,मुस्कान तुम्हारे ,मेरे दिलको भाता है ,
बोलती नहीं तुम , पर मौन तुम्हारे ,सब कुछ बता देता है।
सपना का आभार मानु  या मानु तुम्हारा आभार
सपना नहीं तो तुम नहीं ,तुम नहीं तो सपना ही बेकार।  

रचना  : कालीपद "प्रसाद'
सर्वाधिकार सुरक्षित 

Friday 5 April 2013

सुहाने सपने



सुहाने सपने 

 सपने सभी देखते हैं। चाहे बच्चे हो ,जवान हो या बूढ़े। ये सपने कभी मन को गुदगुदा जाता है तो कभी डराता और कभी  रात भर तंग करता है। देखिये कैसे ?
(यह पोस्ट करीब  एक घंटा पहले पब्लिश किया गया था परंतु मुझे  यह जानकारी दी गई की पोस्ट में कुछ गड़बड़ है। इसलिए दो बार टाइप कर पोस्ट कर रहा हूँ।असुविधा के लिए खेद है।)  





सुहाने सपने !


तुम कौन हो ?
जो मुझे नींद में सताती हो
अनर्थ शोर गुल मचाती हो
मिठी  नींद की गोद से उठकर
दूर, कहीं दूर निर्जन में ले जाकर
कभी आकाश ,कभी पाताल
कभी मृत्युलोक की सैर कराकर
वन,उपवन, कभी चमन की बहारे दिखाकर,
ख्वाबों के झरोखे से झांक कर
मिठी मिठी बातें कर
एक मीठा सा दर्द देकर
रातभर मुझको सताकर
स्वम न जाने कहाँ खो जाती हो।
तुम कौन हो ?


तुम  कौन हो ?
बड़ी मासूम कातिल हो
राख में छुपी आग हो ,
मासूम चेहरा दिखाकर
लजिली आँखे झुकाकर
मिठी मिठी मुस्कुराकर
बिना तीर और तलवार के
तुम करती हो शिकार।

मूक आवाज में तुम बात करती हो
मुस्कुराकर अर्थ समझाती हो
किन्तु अर्थ समझने के पहले
मेरी मिठी नींद उड़ा के
हवा में आंचल लहरा के
काले काले अलकों से मुहं छुपाके
तुम परी राज्य में चली जाती हो
तुम कौन हो ?

तुम कौन हो ? सपने !
मुझ से छल  न करो
मुझको ये हसीं सपने न दिखया  करो
मेरी नींद में न बाधा बना करो
क्योंकि
मैं चेतना हूँ तो तुम सपना हो
मैं सत्य हूँ  तो तुम अलीक  हो 
दूर , कहीं दूर की ये हरियालियाँ
न मुझको दिखाया करो
मुझको न सताया करो।


कालीपद " प्रसाद "
सर्वाधिकार  सुरक्षित