Thursday 30 May 2013

बादल तु जल्दी आना रे (भाग २)





काले काले बादल बताओ तुम           
कहाँ है तुम्हारा देश?
कहाँ से तुम आये ,जा रहे हो कहाँ
जहां होगा नया नया परिवेश।
दूर  देश  से  आये  हो तुम
थक कर हो गये हो चूर चूर ?
करो विश्राम घडी दो धडी यहाँ
 जाना है तुम्हे बहुत दूर।।

देखो नदी, नाला ,पोखर ,कुआँ ,
यहाँ  सुख गया है सारा ,
जाने के पहले बरस जाओ यहाँ
इस देश को बना जाओ हराभरा।
पहला फुहार किया जीवन का संचार
तुम ने उड़ाया गोरी का होश ,
चंचल तितली ज्यों चक्कर काट रही है
मानो हो गई है मदहोश।।

धीर गंभीर  सिन्धु पुत्र हो , सिन्धु जैसा
श्याम-नील वर्ण काया ,
सिन्धु जैसा गंभीर गर्जन सुनकर
कांप जाता है जग  सारा।
 दामिनी   दमक   डराती   है   सबको
गिरती है दामिनी जब धरती पर ,
फुहार तुम्हारा ला देता  है मुस्कराहट
दुखी पीड़ित चेहरे पर।।

पयोधर तुम्हारा पय  अमृत है,
है यह जीवन संजीवनी ,
पीकर धरती हो जाती है सजीव
खेतों में लहराती हरियाली।
प्रिया के चेहरे की चमक लौट आती है
जब घर आता है परदेशी पिया ,
किसान  के  चेहरा  खिल  जाता है
जब देखता है खेत फसल से भरा।। 




किसान के भाग्य-विधाता कोई है ....
तो वह तुम ही हो, हे जलधर!
किसान उगाता फसल ,पेट भरने मानव का
किसान आश्रित है तुम पर।
अच्छा फसल होना ना होना ,सब कुछ 

है तुम्हारी वर्षा पर निर्भर,
मानव  के जीवन में खुशहाली लाने,  हे मेघराज !
खुश हो कर वरसो  इस धरती पर।। 
(सभी चित्र गूगल से साभार )
कालीपद "प्रसाद"
सर्वाधिकार सुरक्षित

Friday 24 May 2013

बादल तू जल्दी आना रे!


ऐ ! पावस का पहला बादल

तू जल्दी आना रे ,

आग में झुलसती धरती को

तू शीतल कर जा रे। 

धधकती आग रवि का तू

 अपना आब से बुझा जा रे ,

प्यासी धरती की प्यास को

शीतल जल से बुझा जा रे।


रिमझिम रिमझिम बरसना तुम

टूटकर ना बरसना रे ,

जाग उठेगा सुप्त-मुमूर्ष तृणमूल

तेरा अमृत पय पीकर वे ,

त्राहि त्राहि पुकारते प्राणी को तुम

रक्षा करो रवि के प्रहार से ,

बना दो एक बार फिर दुल्हन धरती को

श्रृंगार करो हरे गहनों से।


स्वागत में तुम्हारे पीक नाचेंगे वन उपवन में

बच्चे नाचेंगे खेत खलियानों में,

खेतिहर झूम उठेंगे उन्मुक्त  ख़ुशी में

हल जोतेंगे खेतो में।

जीव जगत की जान हो तुम

सबकी जान बसी है तुम में,

प्यासी धरती की प्यास बुझाने

 तुम देर  ना करो आने में।


खेतो में जब लहराते फसलें होंगे

हरी ओढ़नी की घूँघट धरती की ,

स्वागत होगा नई नवेली दुल्हन की

तुम्हे मिलेगी दुआएं धरतीवालों की।

तुम गरजना कम बरसना ज्यादा

पर छेद ना करना अम्बर में,

काल वैशाखी का तूफ़ान ना लाना

तारीफ़ है संयम से बरसने में।


 झूम झूम कर बरसना तुम

आषाढ़ सावन के महीने में,

पर धरतीवासियों का ख्याल रखना तुम

खुशियाँ ना बह जाये तुम्हारे बाढ़ों  में।

आश्विन कार्तिक में फसल पकेंगे

उस समय ज्यादा ना बरसना , 

किसान का मेहनत  बेकार जायगा

व्यर्थ होगा तुम्हारा आना जाना।


शरद-हेमंत के कपसिले  बादल बनकर

रवि को ढक  कर रखना,

किसान काटेगा फसल  दोपहरी को

उनको शीतल छाया देना।

शीत-वसंत में तुम घर लौट जाना

अपनों से  मिल कर आना ,

इन्तेजार करेंगे हमसब तुम्हारा

पावस में फिर लौट कर आना।



शब्दार्थ :आब =पानी

रचना : कालिपद  "प्रसाद" 

           सर्वाधिकार सुरक्षित

Saturday 18 May 2013

वटवृक्ष

 

 
चित्र गूगल से साभार

  

सूक्ष्म हूँ जैसे

क्षुद्र बालू  कण ,

होना है बड़ा , बनना है विशाल

सोचता हूँ हर क्षण।

मैं छोटा, बहुत ही छोटा जीव  हूँ

किन्तु एक विन्दु में

एक सिन्धु छुपाकर रखता हूँ।

भ्रमित मत हो मानव

नहीं हूँ मैं कोई भुत, प्रेत या दानव ,

मैं तो प्राकृति की एक करिश्मा हूँ

मैं वटवृक्ष का एक क्षुद्र बीज हूँ। 

प्रकृति ने सींचा उष्मा जल से

अंकुरित हुआ मैं दो पत्तियों से,

मुझे मिला धरती का सहारा

शनै: शनै:  हुआ  मैं   बड़ा।

फैला जाल जड़ ,शाखा ,पत्तियों का

मिली पथिक को शीतल छाया

पक्षियों को रात्रि का रैन बसेरा।

 

क्षुद्र था मैं बीजरूप में ,काया है अब विशाल

नहीं है डर  मुझे मौसम के तेवर का 

ग्रीष्म , वर्षा हो या हो  शीत,पतझड़।

मानता हूँ धन्य हुआ जीवन धरती पर

नि:संकोच  हो, प्राणी विश्वास करते मुझपर।

पक्षियाँ झुण्ड में आकर बैठती है  मेरे डाल पर 

फुदक फुदक कर धूमती फिरती इस डाल से उस डाल पर।

उनकी चह चहाहट  में संगीत सुनाई  देता है

हवा में उल्लास  और मन में शुकून पहुँचता है।

पशु थक कर विश्राम करते मेरे छावों  में 

मानव  के डर  से  त्रस्त ,घूमते फिरते  डरे डरे।

कुछ घडी शांति के उनको

जब दे पाता  हूँ ,

जीवन का उद्देश्य पूरा हुआ

ऐसा अहसास कर पाता  हूँ।

 

नारियां क्यों पुजती मुझे

नहीं है उसका  ज्ञान ,

घूम घूम कर बाँधती धागे  मुझे

राखी है या और बंधन,मैं हूँ अनजान।

किन्तु उनमे दृढ़  आस्था का

निश्चित अहसास है मुझे

दुआ करता हूँ ,पूरी हो मुराद

'वृक्षों में वह(वट )नारायण है'

ऐसा ही  वे मानते हैं मुझे।

 

    रचना : कालीपद "प्रसाद

 ©सर्वाधिकार सुरक्षित








 

Sunday 12 May 2013

हे ! भारत की माताओं

 
 

माँ बेटा - बेटी के साथ 

                                                   (चित्र गूगल से साभार )

 १ २ मई अन्तर्राष्ट्रीय मदर्स दिवस है .वैसे एक दिखावा के तौर पर ये सब दिवस मनाये  जाते है ।इसको कोई गंभीरता से नही लेता है।लेकिन यदि थोडा गंभीरता से लिया जाय और इसके उद्देश्य के बारे में विचार करें तो समाज में कुछ धनात्मक परिवर्तन आ सकता है। मदर्स डे में सिर्फ माँ की गुणगान करके ही कार्यक्रम की समाप्ति हो जाती है .उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन तो होना ही चाहिए पर समाज मे हो रहे बेटे -बेटी के  भेद भाव को दूर करने में उनकी भूमिका पर भी ध्यान  देना चाहिए .सब जानते है माँ का ऋण कोई उतार नहीं सकता क्योंकि माँ ही बच्चे के जीवन की दिशा निर्धारण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।बच्चे की जिंदगी में सफलता और असफलता का श्रेय भी माँ को दिया जाता है क्योकि वह माँ ही है  जो बच्चों में संस्कार का बीज बोती है ,वही अंकुरित होकर उसके जीवन में फल देता है। इसलिए इस मदर्स डे पर मातायों को एक बड़ी जिम्मेदारी निभाने के लिए  विनम्र निवेदन  करता  हूँ।   


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हे ! भारत के  माताओं जागो ! उठो!! कुछ करो !!!

आँख मुन्दकर सोने का अभिनय क्यों करो ?

तुम्हारा   अपना   काम    कोई   और   करे,

इस स्वार्थी जगत में  ऐसी दुराशा ,तुम क्यों करो  ? 

तुम्ही हो दुर्गा ,दुर्गति नाशिनी ,शक्ति स्वरूपिणी हो,

अखिल जग-तिमिर-नाशिनी, ज्ञान-ज्योति प्रकाशिनि हो।

फिर तुम्हारे मन में यह अन्धकार कैसे ?

बेटे को बेटी से श्रेष्ट , यह तुमने माना कैसे ?

खून है तुम्हारा , नाजुक है  गुलाब की पंखुड़ी जैसी,

कोमल है,   संवेदनशील है ,  ठीक  तुम्हारी   जैसी।

उसके    जनम   में  फिर   तुम  दु:खी   क्यों ?

और   बेटे    के जनम  पर  तुम   हंसती क्यों  ?

बेटे  के जनम  पर, मिलकर करती हो जयगान ,

और बेटी के जनम पर  केवल दु ;ख और क्रन्दन ?

कभी  तुम  उसे  दुर्गा , लक्ष्मी  रूप में पुजती हो,

कभी तुम उसे ताड़कर, बेचारी को भूखी सुलाती हो।

बेटे के लिए हलुआ पुड़ी  क्यों ?

बेटी के लिए सुखी रोटी क्यों ?

भेद- भाव का पाठ  किसने तुम्हे पढ़ाया ?

वही है शत्रु , तुम में भेद-भाव का बीज बोया।

इंसान हो , समाज हो , या हो कोई शास्त्र,

ललकारो उन्हें ! करो विद्रोह !! उठाओ शस्त्र!!!

तोड़ दो कन्या-दलित  रिवाज़  की  बीमार  जर्जर  जंजीर,

खोल दो सब बंद दरवाज़े ,आने दो सुवासित स्वच्छ समीर।

 छीनकर  दिला   दो  बेटी   का  हक़ , गर्व  से जीने का,

दिला दो न्याय बेटी को ,अंत करो सब भेद- भाव का।

दुर्गा बनकर  दलन किया था , अपराजित  दैत्यों को,

मुक्त  किया  दैत्यों  से , स्वर्गहीन, भीत  देवतायों को।

बनना  होगा अब 'काली '  बेटियों की बेड़ियाँ तोड़ने,

शोणित पीकर बलात्कारी रक्तबीज को नि:शेष करने।

निश्चित जानो ,बेटी पर जितना अत्याचार हो रहा है,

बेटे  बेटी में  भेद -भाव ही  इसका मूल कारण है।  

करो लोभ संवरण , बेटे की शादी में ना दहेज़  लो,

 बेटी की  शादी में दुल्हन ही दहेज है,और दहेज़ क्यों  दो ?

दहेज़ के दानव को  तुम्हे ही मारना होगा,

वर्ना वह तुम्हारी  बेटी को जीते जी  मार देगा।

नारी हो तुम ,बेटी भी नारी है ,नारी का तुम रखो मान,

खरीदकर एक बिकाऊ दामाद. बेटी का ना करो अपमान।

माँ बनकर बेटे बेटी को एक जैसा पालो,

बेटे की सगी माँ और बेटी की सौतेली ना बनो ।

यही विनती है भारत की   माताओं , तुम्हे करते हैं प्रणाम,

बेटा -बेटी में भेद भाव ना करो , मानो सबको एक सामान। 



   रचना : कालीपद "प्रसाद

 ©सर्वाधिकार सुरक्षित









Monday 6 May 2013

'वनफूल'









(सभी चित्र गूगल से साभार )




जन कोलाहलों से दूर , निर्जन में ,
                               बागों में नहीं वन में,
चमन   की  बहारों  से  दूर ,
                               प्रकृति  के गोद   में ,
वसुंधरा का  प्यार  जहाँ  है ,
                               है  सभी  मेरे  अनुकूल ,
जनम लिया   मैं  तुम्हारी  तरह
                              एक छोटा  सा 'वनफूल' ।।




झूम   उठे   मधुकर   वृन्द ,
                           गूंज  उठी   भ्रमर   वाणी,
झूम   उठे  वृक्ष  लता  सब  ,
                           गुंज  उठी  मंगल  वाणी ,
वन -जीवन  के सुनापन   में ,
                           मंगल  गीत  गाये  अलिकूल ,
जनम लिया   मैं  तुम्हारी  तरह
                             एक छोटा  सा 'वनफूल' ।।



निष्ठूर  बात  झक  झोरती  मुझको
                                       मैं  क्या  उसको  झेल़ू  ,
माली  का   संग  मिला  न  कभी
                                       वनमाली  के  संग मैं  खेलूं ,
गोचारण  में   जहाँ   आते   थे 
                                       वनमाली  के  संग  गोपकूल ,
जनम लिया   मैं उसी  वन  में
                                       एक छोटा  सा 'वनफूल' ।।


वनमाली  के  साथ  खेलते  थे
                                       गोपी और गोप गण,
रामचन्द्र  के   संग   थी  सीता
                                     और  थे   वीर  लक्ष्मण ,
निर्मल  जल था  प्यास  बुझाने
                                      आहारार्थ  थे फल  कंद -मूल ,
श्वेत  पुष्प  हार  बनकर जनम लिए
                                       छोटे छोटे  हम वनफूल।।



वसन्त  बात  मुझको  क्या  कहती
                                         मैं   क्या   उसको  समझूँ ?
ह्रदय -वीणा   के      सप्त  स्वर  में
                                         मैं  किस  स्वर  को  ढूंढुं  ?
किसने   छेड़ा   ये   स्वर   लहरी
                                      किस से  हो  गया  यह  भूल ?
जनम लिया   मैं  तुम्हारी  तरह
                              एक छोटा  सा 'वनफूल' ।।



मधुकर   आये   याचने   को 
                                मधुबाला    मधु       दो ,
अलिकुल    गूंजकर      बोले
                                रजबाला     रज      दो ,
निर्जन   स्थान  , बड़ा  सुनसान
                         यौवन   का  जब  खिला   फुल  ,
जनम लिया   मैं  सघन  वन  में 
                              एक छोटा  सा 'वनफूल' ।।



चमन  में   न  कभी  जनम लूँ  मैं ,
                                  बहारों  में  न   खिलूँ  ,
नगर  बाला   से   दूर   रहूँ   और ,
                                  वन  लता  के  साथ खेलूं ,
घन -घोर   देख  पीक   नाचे  जैसे
                                   वैसे  नाचूँ   सुध - बुध  भूल ,
वनमाली ! हर  जनम  में मुझे बना देना
                                  एक छोटा   सा  'वनफूल'।।


रचना :  कालीपद  "प्रसाद"          
             ©सर्वाधिकार सुरक्षित




 

Thursday 2 May 2013

मैं कौन हूँ ?



मैं कौन हूँ ?
तुम मुझे जानोगे नहीं 
दुनियाँ  की भीड़ में 
तुम मुझे पहचानोगे नहीं ,
तुम्हारी नयन , तुम्हारी उपनयन 
तुम्हारी सूक्ष्म दर्शियाँ 
मुझे ढूंढते  ढूंढते थक जाएँगी 
पर तुम मुझे ढूंढ़  पाओगे  नहीं।


मैं सूक्ष्म हूँ ,
पर सूक्ष्म जगत में भी 
तुम मुझे देख पाओगे  नहीं।
मैं कभी अलौकिक , अनादि  अनंत ,
कभी भौतिक जीव हूँ 
ठीक तुम्हारी तरह, सजीव हूँ। 


आकाश ,अग्नि ,जल ,वायु का 
संगम  होता  है जब मृत्तिका से
 मेरा एक नया  भौतिक रूप उभर आता है,
तुम्हारी तरह एक नया जीवन का संचार होता है ,
नाम होता है सीता ,गीता ,समीम 
या कुछ और जैसे राम ,रहीम ,
या फिर पक्षी,पशु बृहद मातंग 
या सूक्ष्म रूप किट पतंग।
कभी बनस्पति ,विशाल वट वृक्ष 
पूजते हैं नर नारी मानकर नारायण।  
हर प्राणी, हर वनस्पति
सब है मेरी ही प्रकृति।
जान में हूँ ,बेजान में भी  हूँ।
जान पाए मेरा स्वरुप क्या तुम ?
क्या हूँ मैं? कौन हूँ मैं ?


मैं आकाश हूँ ,पर केवल आकाश नहीं ,
मैं अग्नि हूँ ,पर केवल अग्नि नहीं ,
मैं जल हूँ ,पर केवल जल नहीं ,
मैं वायु हूँ ,पर केवल वायु नहीं ,
मैं मिटटी हूँ , पर केवल मिटटी नहीं ,
मैं इनके समष्टि हूँ,
मैं भौतिक भी हूँ, और अलौकिक भी ,
तुम में 
मैं अन्तर्निहित शक्ति हूँ 
मुझे जानो ,मुझे पहचानो 
कौन हूँ मैं ?


रचना कालिपद "प्रसाद 
  सर्वाधिकार सुरक्षित