Thursday, 31 October 2013

हम-तुम अकेले


                                                                         
हम-तुम अकेले


 महानगरों में नागरिकों की  सुविधा के लिए जोगिंग पार्क  होते है | अधिकतर पार्कों में एक कोना बुजुर्गों (सीनियर नागरिक )के लिए  बनाया गया है | बुजुर्ग लोग इसी कोने में एकत्र होकर अपने सुख दुःख की बाते करते हैं| हैदराबाद के एक पार्क में बैठ कर एक बुज़ुर्ग दम्पति के जो दुःख दर्द मुझे महसूस हुआ ,उसे मैं इस कविता में ढाला है | यह केवल इनके दर्द नहीं है ,ऐसे अनेक  दंपत्ति मेरे आसपास रहते है जिनमे से बहुतों को मैं व्यक्तिगत  रूप से जानता हूँ,यह दर्द उनलोगों का भी है  |इसे देखकर संयुक्त परिवार के लाभ याद आती है |



आया है हर कोई अकेला
जाना  भी है हर को अकेला 
किस बात का दुःख है तुम्हे
प्रिये ! जरा सोचकर बताना |

मिला साथ मेरा तुम्हारा
हमने बांधा एक आशियाना,
चूजों के जब पंख होगा
उन्हें तो है उड़ जाना |

लड़की होगी ,ब्याह  होगी
जायेगी वह साजन के देश,
लड़का होगा ,पढ़ लिख कर
वो भी जायेगा विदेश |

मैं और तुम रह जायेंगे
जब तक हमें है जीना,
जब होंगे लाचार,अचल
आएगा क्या कोई अपना ?

कौन होगा अपना यहाँ
सिवा मैं तुम्हारे ,तुम मेरे लिए
इस आशियाना में काटेंगे दिन
हम, एक दूजे के लिए |

चित्र गूगल से साभार 


कालीपद "प्रसाद"
©सर्वाधिकार सुरक्षित





Sunday, 27 October 2013

सपना और मैं (नायिका )

                                                                  
       
सपने में हम तुम

                          इस कविता का पहला भाग " सपना और तुम "(नायक का सपना) ८ अप्रैल २०१३ को प्रसारित किया गया था | अब दूसरा भाग "सपना और मैं " (नायिका का सपना ) प्रस्तुत कर रहा हूँ |


निशि दिन ध्याऊं ,करू मैं क्या ,तुम नही आए
तुम हो कठोर ,याद तुम्हारी, मुझको सदा सताए |

चाहती हूँ आऊँ,पर जग की  तीखी नज़र हैं हम पर
सपना ही तो पथ है ,कोई पहरा नहीं है इसपथ पर |

चली आती हूँ इस पथ पर अकेली ,बन अभिसारिका
जटीला कुटीला की तिरछी नज़रें अब हमें क्या करेगा |

विरह में तुम्हारे दिन रात , तड़पते हैं मेरा तन मन
अच्छा लगता है मुझे ,तुम्हारे मजबूत बाहों का बंधन |

प्रेम का धागा न टूटे कभी ,न टूटे यह बंधन
चिर प्याषी हूँ ,पिलाओ तुम मुझे ,जब तक हैं जीवन |

अनन्त अफुरंत है यह प्यार -मदिरा का प्याला
चाहती हूँ पीऊं और पिलाऊं , मिटाऊं ऊर की ज्वाला |

मधुर मधुर अधर तुम्हारा, है रस भरा रसीला
मेरे अधरों पर छलकते हैं,यह रस भरा प्याला |

चंचल तितली सी उड़ती फिरूं मैं जब बाग़ में
पकड़ो मेरे बाहों को ज्यूँ  ,मुहँ छुपा लूँ मैं आँचल में|

फूलों की  खुशबु से मोहित मंडराए भौंरे इधर उधर
भौरों की भांति तुम भी ,लगाते हो मेरे चक्कर |

मैं आगे ,  तुम पीछे ,सरपट भागते जाती हूँ
नाज़ुक हूँ मैं ,थक जाती हूँ ,तब पकड़ में आती हूँ |

बाहों में आकर तम्हारे , मेरे दिल को शुकून मिलता है
काल की गति रुक जाय वहीँ ,दिल यही दुआ  मांगता है |

नींद में सपना ,सपना का आभार ,मिलते रहेंगे तुम हम
प्यार के हैं दुश्मन अनेक , बेदारी में नहीं मिल सकते हम |

शब्दार्थ : अफुरंत - कभी समाप्त न होने वाला ;  बेदारी - जागरण  , जागृति 
चित्र गूगल से साभार


कालीपद "प्रसाद"

©   सर्वाधिकार सुरक्षित





Tuesday, 22 October 2013

मैं

"मैं "
एक शब्द रूप हूँ ......
प्रतिनिधि हूँ  उसका 
जो अलौकिक है 
परलौकिक है
अदृश्य है 
अस्पर्शनीय है
किन्तु श्रब्य है 
चेतन है
गतिमान है
वह उत्पत्ति का केंद्र है |

भौतिक दृश्य जगत से परे
कौन हैं वहाँ?
मैं कहता हूँ   - "मैं हूँ "
तुम कहते हो ---"मैं हूँ "
वह कहता है ......"मैं हूँ "

"मैं " अर्थात     अहम्  म्  म् म् .........म्म्म्म्मम्म्म्म्म् है यह ब्रह्मनाद 
"हूँ "  अर्थात     हुम् .....म् म् म्-------म्म्म्म्म्म्म्म्म्   यह भी है ब्रह्मनाद 

मैं मैं मैं ................
सब "मैं' मिलकर बनते हैं "हम "
हम अर्थात -हम् म् म्..........म्म्म्म्म्म्म्म्+अ .......अन्तहीन अह्नाद ..
अह्नाद समाहित है ब्रह्नाद में 
सबकी उत्पत्ति के मूल में |

ब्रह्म नाद अदृश्य है 
यह अस्पर्शनीय  है 
यह अलौकिक है 
यह परलौकिक है 
किन्तु यह श्रब्य है 
यह चेतन है 
यह गतिमान है |  

सुन सकते हो, तो सुनो निर्जन में
रखो अंगुली अपने कर्ण मुल में
आँख मुंदकर आजाओ ध्यान मुद्रा में
स्थिर कर चंचल मन को
सुनो ध्यान  से " हूँ.... "कार को 
यही है "मैं' "हूँ " " अहम् " " हम ' का अन्तिम रूप 
यही है हर शब्द का ब्रह्मरूप ,
यह अनन्त है 
यह अदृश्य है 
यह अविनाशी है 
यह सर्वव्यापी -सर्वत्र है 
स्वयंभू है 
ब्रह्मनाद है ,
सृष्टि का मूल है | अंत भी है |

अहम्  आदि है -सृष्टि है 
अहम् मध्य है -स्थिति है 
अहम् अन्त है -संहार है 
अहम् ब्रह्मा विष्णु महेश है 
यही है  अ  -उ -म अर्थात ॐ 
सृष्टि स्थिति और  शेष 
"मैं" में विलीन हैं 
ब्रह्मा विष्णु महेश|


कालीपद "प्रसाद"

© सर्वाधिकार सुरक्षित





Friday, 18 October 2013

महिषासुर बध (भाग तीन)



महिषासुर बध (भाग तीन)अन्तिम भाग 

 ७६
महिषासुर 
धरा भैंस का रूप 
गणों को त्रास |
७७ 
युद्ध आरम्भ 
गण सभी हतास 
मार खाकर |
७८ 
गणों की सेना 
मारे महिषासुर 
जीते असुर |
७९ 
जगदम्बा को 
क्रोध हुआ बहुत 
सिंह दहाड़े |
८० 
महिषासुर 
क्रोध में भर कर
खुरों भू खोदे |
८१ 
अपने सींगों 
ऊँचें ऊँचें पर्वतें
उठाके फेंके |
८२ 
क्रोध में भरे 
महादैत्य को देख 
अम्बिका क्रोधी |
८३ 
महा संग्राम 
हुआ पाश  बंधन 
महिषासुर |
८४ 
पाश  बंधन 
महान असुर को 
देवी ने किया |
८५ 
महिषासुर 
त्याग भैंस का रूप 
धरा सिंह के |
८६ 
जगदम्बा ज्यों 
सिंह माथा काटने 
उद्दत हुई....
८७ 
त्यों खड्गधारी 
पुरुष के रूप में 
दिखाई दिया |
८८ 
बाणों की वर्षा 
तब देवी ने किया 
भेदा पुरुष |
८९
 मायाबी दैत्य
गजराज के रूप
धारण किया |
९० 
सुढ़ से हाथी 
अम्बिका के सिंह को 
खींचने लगा |
९१
 तलवार से
काटी सुढ़ उसकी 
अम्बिका ने |
९२ 
महादैत्य ने
रूप धारण किया
पुन: भैंस का |
९३ 
क्रोध में भरी 
जगदम्बा चण्डिका
भृकुटी तानी |
९४ 
मधु का पान 
करके आँखें लाल 
हँसने लगी |
९५
हुआ उन्मत्त 
पराक्रमी राक्षस 
गर्जने लगा |
९६ 
फेंकने लगा
चण्डिका के ऊपर 
पर्वतों को भी |
९७ 
देवी अपने 
बाणों के समूह से 
चूर्ण करती |
९८ 
उनका मुख 
मधु मद से लाल 
दैत्य को बोली |
९९ 
ओ मूढ़मति !
मेरे मधु पीने की 
अवधी तक ......
१०० 
जी भरकर 
क्षणभर के लिए 
खूब गर्ज ले |
१०१ 
मेरे हाथों से 
तुम यहीं मरोगे
गर्जेंगे देव  |
१०२ 
यूँ कहकर 
उछल कर देवी 
थी दैत्य पर |
१०३ 
पैर से दबा 
उन्हें शूल से किया
कंठ आघात |
१०४ 
महिषासुर 
धरने लगा रूप 
दूसरा कोई |
१०५ 
आधे शरीर
बाहर निकला था 
भैंस रूप से |
१०६
देवी प्रभाव
नहीं निकला पूरा 
आधा अधुरा |
१०७ 
इस पर भी 
युद्ध करने लगा 
देवी से दैत्य |
१०८ 
देवी ने तब 
तलवार से काट 
मुंड गिराया |
१०९ 
दैत्यों की सारी 
सेनायें भाग गई
त्रासदी मची |
११० 
देवतागण
अत्यंत प्रसन्न हो 
नाचने लगे |
१११ 
देव महर्षि 
साथ स्तवन किये 
दुर्गा देवी का |
११२ 
जय जय  माँ 
जयध्वनि दुर्गा माँ 
धरा आकाश |
११३ 
समाप्त हुआ
किस्सा महिषासुर 
विराम दिया |
११४ 
मानव कष्ट 
दूर करो जननी 
अहम् नमामि |

कालीपद "प्रसाद"
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Wednesday, 16 October 2013

महिषासुर बध (भाग २ )

                                                                                
अपने पूजा पण्डाल की  देवी माता

 जिन्होंने प्रथम भाग नहीं पढ़ा है , उन्हें कहानी के प्रवाह समझने में असुविधा हो सकती है | अत: उनसे  निवेदन है कि वे प्रथम भाग को भी पढ़ लें  तो ज्यादा मजा आयेगा |

महिषासुर बध (भाग २ )
३८
डोलने लगी
पृथ्वी और सागर
वन पर्वत |

३९
सिंह बाहिनी
जय माता भवानी
जय हो देवी |
४०
स्तवन किया
भक्ति से देवगण
महादेवी को |
४१
युद्धाभिमुखी
सुसज्जित कवच
चमके दैत्य |
४२
महिषासुर
क्रोध में दौड़ा ,जहां
भगवती थी |
४३
देखा देवी को
लोकों को प्रकाशित
कर रही थी |
४४.
सर मुकुट
रश्मि फैला रही थी
धरा से नभ |
४५
दशों दिशा को
हजारों भुजाओं से
की आच्छादित |
४६
देवी के साथ
दैत्यों का छिड़ा युद्ध
तदनंतर |
४७
अस्त्रों शस्त्रों के
उन्माद प्रहार से
पूर्ण दिशाएँ |
४८
 चिक्षुर  नाम
सेनापति दैत्य का
हुंकार भरा |
४९
अन्य दैत्यों की
चतुरंगिनी  सेना
लड़ने लगी |
५०
रणभूमि में
देवी बाहन सिंह
मारा दैत्यों को |
५१
अम्बिका देवी
असुरों की सेना में
भयोत्पादक |
५२
प्रलयंकारी
वनों में दावानल
जैसे जला दी |
५३ 
नि;श्वास छोड़े 
प्रगट हुए गणें
हाथ में अस्त्र |
५४ 
असुर नाश 
करे देवी के गण
बाजे नगाड़ा |
५५ 
शंख मृदंग 
युद्ध महोत्सव में
बज रहे थे |
५६ 
तदनन्तर
देवी ने त्रिशूल से 
गदा खड्ग  से ,
 ५७ 
किया संहार 
कोटि महादैत्यों का 
धरती पर |
५८ 
घंटे की नाद 
सुन शत मूर्छित 
दैत्य सैनिक |
५९ 
देवी की शूल 
करे छेद छाती में
दैत्य सेना के |
६० 
रणांगण में 
बाणसमूह वृष्टि 
अभूत पूर्व |
६१ 
किसी का सर 
बिना सर के धड़
धरती शायी |
६२
हाथों में खड्ग 
छिन्न भिन्न हो धड़ 
ललकारते |
6३ 
संग्राम स्थल 
रक्त रंजित माटी
लाशों का ढेर|
६४ 
खून की बही 
बड़ी बड़ी नदियाँ
युद्ध स्थल में |
६५ 
जगदम्बा ने 
संहार कर दिया 
दैत्य सेना को |
६६ 
दैत्यों की सेना 
हताहत अनेक 
चिक्षुर क्रुद्ध |
६७ 
महा युद्ध की 
अम्बिका देवी संग 
बाणों की वर्षा |
६८ 
देवी ने काटे 
चिक्षुर के बाणों को 
अनायास ही|
६९ 
मार गिराया 
सारथी और घोडा 
दुष्ट दैत्य के |
७०
चिक्षुर दैत्य 
धनुष रथ घोडा
सारथी हीन |
७१ 
महा दैत्य ने 
भद्रकाली ऊपर 
चलाया शूल |
७२ 
अम्बिका ने भी 
शूल प्रहार किया 
काटने शूल |
७३ 
चिक्षुर शूल 
सैंकड़ों टुकड़े हों 
चूमा धरती |
७४ 
चिक्षुर का भी 
धज्जियां उड़ गई 
खो दिया प्राण |
७५ 
चिक्षुर मृत 
महिषासुर क्रुद्ध 
चामर मृत |

क्रमशः भाग ३ (अन्तिम भाग )


कालिपद "प्रसाद"
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