Sunday 30 June 2013

झुमझुम कर तू बरस जा बादल।।

काले घना कजराले  बादल
उमड़ते घुमड़ते मचलाते बादल
गगन के आँगन में नाचते बादल
खुशियों का सन्देश लाते  बादल
शराबियों सा लडखडाते  बादल
 झुमझुम कर बरस जा बादल।।

बादल से बादल टकराते बादल
दामिनी के जन्म दाता बादल
दामिनी दमक से चमकता बादल
मेघनाद सा गर्जन करता बादल
रुक रुक   कर   बरसता    बादल
रिमझिम रिमझिम बरसता बादल।।

रुई  सा सफ़ेद   कपसिले  बादल 
हवा में  उड़ जाता हल्का   बादल
पानी से भरा भारी  काला बादल
किसान का भाग्यविधाता बादल
गर्मी  से  राहत  दिलाता   बादल
 झुमझुम  कर तू  बरस जा बादल।।

तू बरसता है ,किसान मुस्कुराता है बादल
धरती पर हरियाली छा  जाती है,बादल
आग उगलता सूरज को  ढकलेता बादल
झुलसती धरती की आग बुझाता बादल
प्यासी धरती का प्यास बुझाता बादल
झुमझुम  कर तू   बरस जा बादल।।

देश  विदेश  में  घूमता  बादल
सूरज के किरणों से खेलता बादल
सप्तरंगी इन्द्रधनुष बनाता बादल
सबका  मन  बहलाता  बादल
खेतो  में  तू  बरस  जा  बादल
झुमझुम  कर तू   बरस जा बादल।।

जलधि  का  जलद  पुत्र  बादल
पुरवैया  हवा  का  मित्र  बादल
पश्चिम से आता पावस का बादल
हेमन्त को घर लौट जाता बादल
जाते जाते फिर बरसता बादल
झुमझुम  कर तू बरस जा बादल।।

मानव पर इतना क्रोध क्यों बादल
क्रोध उतारा केदारनाथ पर बादल
देव भी नहीं बचा तेरे क्रोध से बादल
त्राहि त्राहि पुकारे शिव के भक्त बादल
हजारों भक्तों ने जान गँवाए बादल
धीरज धरकर धरती पर बरस जा बादल।।

 मानव का अपराध अनेक तू जानता बादल
काटकर वृक्ष को तुझसे वैर बढाया बादल
पहाड़ों  के दोहन से तू नाराज है बादल
पर्यावरण का दुश्मन है नर तू जानता बादल
पर तू तो  इतना क्रोधित ना हो बादल
संयम रख तू ,सुधरेगा मानव ,यह जान ले बादल।।

पशु पक्षी जीव का तू जीवन है बादल 
न्योता स्वीकारा ,तू आया बादल
आभार तेरा ,   तू  दयालु  बादल
 बरसकर भर दे नदी पोखर बादल
अगले बरस फिर आना बादल
झुमझुम  कर तू  बरस जा बादल।।


कालीपद "प्रसाद "


©सर्वाधिकार सुरक्षित



Monday 24 June 2013

जिज्ञासा ! जिज्ञासा !! जिज्ञासा !!!




हर धर्म यही कहता है
हर जीव  में एक आत्मा है ,
परमात्मा का वह छोटा रूप है
आदिकाल से यही विश्वास है,
किन्तु आजतक किसी ने भी
ना परमात्मा, ना आत्मा को देखा है।
विचार में ,चिंतन में यह  हमेशा रहता है
कहीं यह किसी दार्शनिक या चिंताविद की
कल्पना की उपज तो नहीं  है ?
दिल हमेशा उसके भय से घबराता है
जिसको  हम परमात्मा कहते है।
यदि मैं उसका अंश आत्मा हूँ ...
तो फिर मैं परमात्मा से क्यों घबराता हूँ?
वैज्ञानिक भी खोज में हैं उस "ईश्वरीय कण "की
जानना चाहता है कारण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की,
कब ,कैसे हुआ शुरुयात ?
इसके मूल में क्या  है ?
कोई शक्ति या कोई व्यक्ति है ?
महा मशीन क्या जान पायेगा ?
प्रक्रति का रहस्य क्या खोल  पायेगा ?
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आस्तिक के मनमें  एक जिज्ञासा है ,
मानकर अस्तित्व ईश्वर की वह पूछता है ..........
हे ईश्वर ! यदि कहीं किसी रूप में तुम हो
ये विश्व ब्रह्माण्ड तुम्हारा है ,फिर तुम क्यों छुपे हो?
भक्त पुकारे तुम्हे अहरह होकर विह्वल
दर्शन पाने तुम्हारे ,माला जप रहे हैं अविरल।
जानता हूँ मर्जी तुम्हारी ,नहीं चाहते देना तुम दर्शन
भक्तों की आस्था ना डोले ,उपाय करो कुछ हे सुदर्शन!
सामने ना आओ ना सही , इतना करो कृपा दान
ऐसा कुछ करो जो हो, तुम्हारे होने का अकाट्य प्रमाण।
यदि तुम समझते हो ,आवश्यकता नहीं कोई प्रमाण की
भक्तों को कैसे विश्वास होगा तुम्हारे अस्तित्व की ?
 कोरी कल्पना में आदिकाल से धोखा खा रहे हैं
धूर्त धर्म के धंधेबाज ,भोली भाली भक्तों को लुट रहे हैं।
धूर्तों की हो रही है जय जय कार
भक्तो में फैला है हा हा कार।
सोच रहा हूँ ,समझ रहा हूँ ,
तुम कोई व्यक्ति तो नहीं हो सकते
व्यक्ति का एक स्थूल रूप होता है ,
तुम शक्ति जरुर हो सकते हो ,
शक्ति शुक्ष्म और अदृश्य होता है,
केवल उसका अनुभव किया जा सकता है।
अगर शक्ति हो ,तो
ना तुम सुन सकते हो
ना तुम देख सक्तो हो
ना अनुभव कर सकते हो
केवल स्थूल में प्रवाहित हो सकते हो
उस पर बल का प्रयोग कर सकते हो।
फिर तुम क्या विजली हो ? वायु हो ?या ऊष्मा हो ?
हाँ तुम इनमे से कुछ हो
इनके ना नाक है, ना कान है, ना आँख है ,
तुम्हारे भी कोई नाक ,कान ,आँख ,दिल नहीं है,
इसीलिए भक्तों की पीड़ा तुम्हे दिखाई नहीं देती
उनकी क्रंदन तुम्हे सुनाई  नहीं देती
उनकी भक्ति का सौरभ तुम्हे द्रवित नहीं करता
उनके कष्टों का तुम्हे एहसास नहीं होता।
तुम तो अपने नियमों से बंधे हो
अपनी प्रवाह को गति देतो हो
चाहे उसमें जीवन का संचार हो
या पूरी श्रृष्टि का संहार हो
तुम नियमों का अतिक्रम नही करते हो।
तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा ....,यदि हम तम्हे जान जाय....
उत्तर दो
तुम कौन हो ?


कालीपद "प्रसाद"

©सर्वाधिकार सुरक्षित








Thursday 20 June 2013

परिणय की ४0 वीं वर्षगाँठ !


                             २0 वीं जून १९७३ को हाथ में हाथ लिए चले थे।

दिल में सपने लिए




चला था जीवन पथ पर अकेला ही अकेला ,
मौज मस्ती,बेफिक्री ,जीवन था अलबेला।

जीवन पथ पर चलते चलते, पथ में मिले एक साथी 
हँसते  खेलते उठते  बैठते ,बन गये वो जीवन साथी।

मन सुन्दर , तन सुन्दर , सुन्दर था उसका हँसना रोना 
लड़ते, झगड़ते ,रुठते ,मनाते ,चार दशक बीते ,पता न चला।

जीवन को उसने मधुर बनाया ,पथ को प्यार से सजाया संवारा 
जीवन पथ पर चलते चलते ,नई  कलियों का उपहार दिया।

ऋषीकेश में लक्ष्मण झूले पर १९८६



पीछे मुड़कर देखता हूँ तो , लगता है यह कल की बात 
चार पुत्रियों के माता पिता हम ,है सब रब की सौगात।

सुख दुःख  सब  मिलकर झेले,  कंधे से कन्धा  मिलाकर
कमियां थी बहुत जिंदगी में, दुःख नहीं दिया शिकायत कर।

मन कहता है , वह अभी बच्चा है , नहीं मानता वह उम्र का बंधन 
केश सफ़ेद हुआ तो क्या हुआ ,मजबूत हुआ और प्यार का बंधन।

पर साथी के बात से कभी कभी , अब मुझे होती है चुभन 

जब कहती है बुजर्ग हो तुम ,खान-पान का लोभ करो संबरण।
यह चित्र १ ला जून २0१३ को बेटी के विवाह वर्षगांठ पर  लिया गया

खुश हूँ मैं जिंदगी से , औरों  से  कुछ  ज्यादा  ही  मिला 
जो मिला वह अपना है , जो नहीं मिला उसका नहीं कोई गिला ।

है बाकि  जिंदगी की सफ़र कितनी, रब जाने या जाने नियति 
पर सुना है बड़ो- बूढों से ,दुआएं बदल देती है नियति की गति।

इसीलिए  इष्टमित्रों , यार दोस्तों ,सबसे है यही अभिलाषाएं 
कट जाय बाकि जिंदगी हँसते खेलते ,"प्रसाद" मांगे यही दुआएं।


कालिपद "प्रसाद "


©सर्वाधिकार सुरक्षित
 


Sunday 16 June 2013

पिता

१ ६ जून पितृ दिवस है ,इस अवसर पिता को शत शत नमन।



पिता धर्म ,पिता कर्म , पिता ही परमतप :

पितरी प्रतिमापन्ने , प्रीयन्ते सर्व देवता।


अर्थ : - पिता का सेवा करना पुत्र का परम धर्म है ,यही उसका कर्म और यही  उसका श्रेष्ट तपस्या है। पिता के स्वरुप में सब देवता समाहित है , इसीलिए पिता  के प्रसन्न होने पर सब देवता प्रसन्न होते हैं।

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नत मस्तक श्रद्धापूर्वक पिता को शत सहस्र कोटि प्रणाम है।

पितृ  चरण कमलों में, शब्दों का श्रधासुमन अर्पित है।।                    

                                                               







पिता ही धर्म है ,पिता ही कर्म है , है वही तप का आधार ,

देवों  में देव "महादेव" ,श्रृष्टिकर्ता, किया  हैं प्राण का संचार।

माँ  है   धरती   ममतामयी ,   ममता  फैली है  जग  में  सारा .

पिता शक्त है ऊपर से, कोमल अन्दर,ज्यों नारिकेल आकारा।

पुत्र -पुत्री ,पत्नि, बूढ़े माँ बाप का ,सबका पिता है एक सहारा,

बीमारी हो या कोई और संकट , हर हाल में पिता है रक्षक हमारा।

बचपन में गिरे ,उठे, तब ऊँगली पकड़कर चलना शिखाया 

घुटनों के बल घोडा बन कर ,पीठ में चढ़ाकर खेल खिलाया.

क्या अच्छा, क्या बुरा ,अच्छा- बुरा का पाठ  पढ़ाया  

बचे कैसे बुराई  से , बुरी आदत से बचना शिखाया।

कभी प्यार से गले लगाया , गलती करने पर डांट लगाया ,

भाव भवना से ऊपर उठकर , विवेक से काम लेना सिखाया।

हम बच्चों के झगडे झंझटों को, मिनटों में सुलझाया ,

प्यार से हो, डांट कर हो ,हमें अनुशासन का पाठ पढ़ाया।

 पिता है जैसे  बरगत का पेड़ , विशाल है इसकी छाया,

सुरक्षित हैं हम सब इसमें ,आंधी तूफान या हो भीषण वर्षा।

भाग्यशाली हैं हम, जिनके सर पर है पिता- बरगत की छाया,

पूछो तकलीफें उन अभागों से ,जिसने बचपन में पिता को खोया।

मेहनत कर पढ़ाते लिखाते पालते ,पेट भरते सब बच्चों का,

हर कष्ट झेलकर खुद ,निष्कंटक करते पथ हर संतान का।

सब दुःख दर्द छुपा लेते छाती में ,अश्रु को भी छलकने नहीं देता,

दर्द का सागर पीकर खुद , बच्चों की छोटी छोटी इच्छा पूरी करता।

ऐसा है पिता महान, कद है नीला आकाश से भी ऊँचा,

ह्रदय उनका इतना विशाल है , लगता है अन्तरिक्ष छोटा।


पिता को शत शत नमन।

कालीपद "प्रसाद "

©सर्वाधिकार सुरक्षित






Sunday 9 June 2013

प्रेम- पहेली

आज प्रेमी, प्रेमिका एस .एम .एस या ईमेल से प्रेम का इज़हार करते है। परतु पुराने ज़माने में ऐसा साधन नहीं था। एकमात्र साधन था पत्र। प्रेमिकाएं  पत्र लिखकर प्रेमी को भेजा  करती थीं परन्तु पत्र में कभी कभी अपना परिचय छुपाकर रखती थी और अनबुझ पहेली से अपना प्रेम प्रदर्शित करती थी। प्रेमी को उसे समझकर प्रेमिका के पत्र का उत्तर देना पड़ता था। ऐसे ही एक अनबुझ पहेली के उत्तर में प्रेमी क्या उत्तर देता है ,यही इस रचना का विषयवस्तु है।


प्रेमिका की पहेली :-

                              भेजती हूँ  पहेली प्राणप्रिये , जल्दी देना  उत्तर।

                              भूल ना जाना  प्राणप्रिया को, करुँगी मैं इंतज़ार।।


                                                            पहेली  

                                             " फूलों में फुल गुलाब का फुल

                                                जल में जल काशी का जल

                                                 भाई में  भाई  पराया  भाई  

                                                 रानी में रानी  दिल्ली की रानी।"    


 प्रेमी का जवाब :-

                              फूलों में तुम गुलाब हो ,नदियों में पावन गंगा .

                              मैं पराया भाई में श्रेष्ट हूँ ,मुझको बना लो तुम सैयाँ।

                              प्रियतमा ! हो कौन तुम ?नाम क्या है ? कहाँ है तुम्हारा बास ?                   

                              दर्द- ए -दिल से पीड़ित हो , आ जाओ , दवा है मेरे पास।

                              तुम दिल की रानी चतुर ,हो बड़ी अभिज्ञा सायानी ,

                              दिल की बातें  करती हो ,पर छोडती नहीं कोई निशानी।

                              पत्र तुम्हारा इत्र  में डूबा ,देता है मीठी   मधुर तासीर ,

                              तुम आओगी, जन्नत मिलेगा ,वर्ना भेजदो एक तस्वीर।                     

                              कब तक यूँ परदे में रहोगी ?  करोगी मुझे बेकरार ,

                               कैसा है रंग रूप तुम्हारा ,कैसा है आचार विचार ?

                               फूलों सा होगा कोमल बदन ,रंग गुलाब की पंखुडियां

                               कान में होगा झुमका   और ,हाथों में रंगीन चुदियाँ।

                               बालों में   गजरा होगा , पावों में आलता की लालिमा

                               मेहंदी से महकती बदन ,संकेत होगा तुम्हारे आने का।

                               आँखों में काजल होगा ,माथे पर प्रभात का रक्तिम सूरज ,

                               सुन्दर होगी तुम उर्वशी जैसी , तिलोत्तमा सम उत्तुंग उरज।

                               पायल  की   झंकार   होगी ,  जब  चलोगी  धरती  पर

                               रिमझिम बरसते पानी जैसे संगीत छाएगा मेरे मन पर।

                               अप्सराएं भी  शर्माती  होगी  देख तुम्हारी  रूप माधुरी ,

                               छुपी हो क्यों ? सामने आजाओ , मिटा दो बीच की दुरी।

                               मैं पियूँगा रूप -रस -मधुर ,पिलाना तुम आँखों आँखों में,

                               तुम दुबोगी, मैं  दुबूंगा, हम  डूबेंगे अथाह  प्रेम  सागर  में।

                               लिखो , कब आओगी ? कब होगा तुम्हारा मेरा मिलन ,

                               कमल मुख का दर्शन हेतु ,अधीर हैं ,हमसे नहीं होता सहन।

                               बेकरार दिल , फिर भी इंतज़ार रहेगा क़यामत तक ,

                               किन्तु इंतज़ार करता हूँ किसका ? नहीं जाना अब तक।

                               कैसे भेजूं पत्र तुम्हे ? कहाँ भेजूं ?   कोई नहीं है अता पता ,

                               इतनी मेहरबानी करो मुझ पर ,भेज दो अपना घर का पता।






                        कालीपद "प्रसाद"

                  

                      ©सर्वाधिकार सुरक्षित