Friday 31 August 2012

दिल की सूनापन से प्यार




दरवाज़ा  खोलने में डर लगता है 

इधर भीड़ उधर भीड़ , जिधर देखो भीड़ ही भीड़ है
मगर इस भीड़ में     हर कोई अकेला है।

बचपन बिता  उछलते  कूदते  दोस्तों में अनेक
बुढ़ापा घसीट  रहा है तन को दोस्त नहीं कोई एक।

रंग विरंगे फूलों के तस्वीर जो आते थे सपने में
न जाने कहाँ खो गए वे मन के विराने में।

चले थे सफ़र में, अकेला ही अकेला
मुसाफ़िर बहुत मिला , दोस्त कोई न मिला।

यह भ्रम था! ,सपना था! कि "रिश्तों में बंधे हैं "
बिखर गए सब रिश्ते ,जब आँख हमने खोला।

सुना है  सब ज़ख्म का दवा है वक्त , वक्त को दो कुछ वक्त
बचपन , कौमार्य , जवानी गई ,गया नहीं बुढ़ापा कमबख्त।

दिल    की   सूनापन  से प्यार  की ,    हालत   क्या   कहे
दरवाज़ा  खोलने में डर लगता है ,कहीं मेहमान न आ जाये।

चिराग जलाया था प्यार  से कि घर में रोशनि  करेगा
बद  नसीबी देखो, कि कोई उसको चुरा के ले गया।

अँधेरा तब भी था, अब भी है , हो गया है गहरा
अँधेरी रात ख़त्म अब , शायद आ रहा है सबेरा।


कालीपद "प्रसाद'
 ©  सर्वाधिकार सुरक्षित






Monday 27 August 2012

मैं एक अपूर्ण शिक्षक हूँ !


कौन महान वृत्त और कौन लघु वृत्त ?


शिक्षक हूँ  गणित का
कक्षा में जाता हूँ ,
पर समझ में नहीं आता
किन प्रश्नों को हल करूँ ?
टेक्स बुक में लिखे हुए
कुछ सीमित  अपदार्थ पश्नों को
या अंतिम कतार में, फटे पुराने कपड़ों में
जीवन जिग्घासा में , मौलिक प्रश्नों के साथ
अनेक भारों से लदकर
बने हुए उस    प्रश्न वाचक चिन्ह को ?

पढ़ाना है वृत्त ,
वृत्त का परिभाषा मैं क्या दूँ ?
किस वृत्त को मैं महान  वृत्त कहूँ ?
और किसको लघु वृत्त ?
मुझे  तो सब दीखता है एक समान।
दनों ही सीमित  है ,दोनों ही असीमित है ,
दोनों का शुरू वही है , अन्त भी वही है   ,
केवल अन्तर है पथ का
आपके और मेरे मत का ,
आप शायद दोनों प्रश्नों को हल कर दें ,
पर मैं ???
मैं एक अपूर्ण शिक्षक हूँ
क्योंकि दोनों में से
मैं एक  प्रश्न का जबाब  दे सकता हूँ।
दूसरा  प्रश्न सामने आते ही
अपने  अधूरे  ज्ञान को छुपाने के लिए
उसे डांट कर बैठा देता हूँ।

शिक्षक हूँ !
इसलिए एक ही प्रश्न का जबाब जनता हूँ।
अगर नेता होता .............
सभी  प्रश्नों का हल निकल लेता।
प्रश्न तथा प्रश्न वाचक चिन्ह
दोनों को एक साथ मिटा देता।

पहले उसके मुहँ पर कुछ दाना  फेंक कर
उसका मुहँ बन्द कर देता,
फिर आश्वाशन की झड़ी लगाकर
उसकी गरीबी मिटाने की भरोषा देता ,
इसपर भी यदि  वह  नहीं मानता  
तो गरीब  को ही मिटा देता।
इत्तेफ़ाक से यदि कोई
गरीब बच जाते........
तो
उस से कहते , आओ
हमारे साथ मिल जाओ
कांग्रेस या जनता ,
अकाली या भजपा ,
किसी से भी हाथ मिलाओ
और काली कमाई से धनवान बन जाओ,
संसद में चाहे हम किसी के
कितने भी करें खिचाई
और पार्टी चाहे कोई भी हो
हम सब हैं मौसेरे भाई।






रचना : कालीपद "प्रसाद "

©  सर्वाधिकार सुरक्षित



Tuesday 21 August 2012

द्वन्द




पत्थर (पुरुष प्रकृति) :(छबि - सौजन्य -गूगल )

अबले  ! हँसाया मुझको तुने
क्या कहूँ  इस दुनिया में
अनगिनित अवलायें
रखती आई है
कितनी ऊँची-ऊँची अरमाने
जैसा कि तुमने ख्याब देखा
इस पत्थर दिल को पिघलाने
अबले ! हँसाया मुझको  तुने।

देखा कभी तुमने क्या ?
पतंग दल ने आग बुझाया ?
कुसुमदल कभी काँटों के द्वंद में
रहा क्या अक्षत , प्रस्फुटित पूर्व रूप में ?
प्रभंजन की भीम लड़ाई में
क्या किया वनराज ने ?
अबले ! क्या किया तुमने घन रूप में ?

सुना नहीं तुमने क्या ?
वज्र सदृश मेरी कठोरता
विन्ध , हिमालय ,हिमाद्री आदि
टिका है मुझ पर ,मैं हूँ किरीटि ,
तुम भी मेरी देख कठोरता
बन जाती हो हिम, त्याग कोमलता
पर मलय ,सुमंद पवन
और सूर्य प्रताप किरण
पिघलाए तुम्हे ,बह गई, न पाई रहने
अबले! मुझ में क्या परिवर्तन देखा तुमने ?


पानी की धारा ( नारी प्रकृति ):   
सत्य है, जो कुछ तुमने कहा, झूट नहीं,
पर गिरि-श्रृंग चिरकर
बहती क्या झरना नहीं?
यदि तुम  कठोर मैं कोमल,
मुझमे  अगर शक्ति नहीं ?
बना लेती राह  कैसे अपनी ,
मैं सबला  , अबला नहीं।

देखा नहीं तुमने क्या
मेरा वह रूद्र रूप ?
कितना भयंकर , विभीषिका पूर्ण
और कितना  ही विद्रूप ,
क्षण भर में बहा लेती मैं
करती सबको निमग्न यहाँ
न दिखते तुम,न दिखाई देती हरियालियाँ
न दिखता हिमालय यहाँ।

पर स्व-धर्म पालन करती हूँ मैं
निर्झर झर -झर  बहती हूँ ,
अपनी शान्त तरल गति से
धरती को शान्ति देती हूँ ,
कोमलता ,धैर्य और सहनशीलता
का प्रतिक हूँ मैं ,
कर सकती हूँ असाध्य साधन
अवोध मानवों को सिखलाती  हूँ।




रचना : कालीपद "प्रसाद "
            ©  सर्वाधिकार सुरक्षित 




Tuesday 14 August 2012

मैं आत्मा हूँ





 

"आत्मा अमर है। यह न तो जनम लेता है न मरता है , न मारा जाता है। न इसे अस्त्र काट सकता है ,न आग इसे जला सकता है और न पानी उसे भिगो सकता है , न वायु उसे सुखा सकता है क्योंकि यह अजन्मा , नित्य ,शाश्वत  और पुरातन है। केवल शरीर  का ही नाश होता है।" यही बात भगवन श्री कृष्ण ने गीता के द्वितीय अध्याय में श्लोक 19, 20, 23 के माध्यम से अर्जुन को समझाया है। इसीको मैं अपने शब्दों में पिरोने की कोशिश की है।
                                                                   
                                                                         मैं आत्मा हूँ


यह शरीर थक सकता है
मैं कभी थकता नहीं ,
यह शरीर  मर  सकता है
मैं कभी मरता नहीं।

यह शरीर जनम लेता है
मैं कभी जनम लेता नहीं ,
यह शरीर घटता बढता है
मैं कभी घटता बढता नहीं।

मैं इस  पिंजड़े का वासी हूँ
किन्तु आजाद हूँ , पराधीन नहीं ,
मैं जब चाहूँ उड़ जाऊं
मुझे रोक कोई सकता नहीं।

यह हिन्दु , वह मुसलमान
तू बौद्ध , मैं क्रिश्चियन
ये सब तो  मन का भ्रम है
मैं इनसे भ्रमित नहीं।

जाति ,धर्म , आकार , वर्ण के
बंधन में है यह काया
सदा विद्यमान हूँ ,इस कोठरी में
पर मुझे कभी कोई बांध न पाया।

जीवन संघर्ष की प्रेरणा हूँ मैं
संघर्ष करता है यह शरीर
जय पराजय का श्रेय इसे है
कर्म फल भोगता यही , मैं नहीं।

तुम आकर्षित हो देखकर मेरा सुन्दर चेहरा
आँख मूँद लेतो हो घृणा से , कुरूपता भाता नहीं ,
रूप , कुरूप  तो काया का है
मेरा तो कोई रूप नहीं।

आँख है पर अँधा है शरीर
आँख की ज्योति मैं हूँ ,
कर्म करवाता इस से , मेरा
कर्म फल पर आश नहीं।

जल नहीं भिगो सकता कमल को
पर सदा रहता है जल में ,
वैसा वास मेरा इस शरीर में
स्नेह है , प्यार है , पर मोह नहीं।

निरन्तर चलता हूँ ,चलता जाता हूँ 
रुकता कभी नहीं मैं ,
चलना ही जिंदगी है ,रुकना मौत है
चलते चलते ,गिरते ,उठते
काया ही थका , हारा , विखरा
           मैं नहीं।

रचना : कालीपद " प्रसाद "
          ©  सर्वाधिकार सुरक्षित


















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Wednesday 8 August 2012

नव-जीवन










एक पीला पत्ता, पेड़ से टुटा 
हल्का हवा का एक झोंका
उसे ले उड़  चला.........
झूलते  रहे  वह हवा के झूले में   
कभी ऊपर कभी नीचे
कभी धरती  पर गिरे, फिर उड़े
और खाते रहे समीर के थपेड़े.
किस  साख  से  टुटा? उसे नहीं पता 
जाना कहाँ ? नहीं है ठिकाना
लाचार बेबस तक़दीर  का मारा, बेचारा
उड़ना, गिरना , रुकना सब में
केवल समीर का सहारा.

कालचक्र की गति को कौन  रोक पाया ?
जीवन के प्रतीक   हरा पत्ता पीला हो गया.
साख से जो था अटूट बंधन
एक क्षण में ही वह टूट गया  .
मलय पवन उठाके अर्थी उसकी
धरती के गर्भ में कर  दिया दफ़न
और सर  झुककर चढ़ाया कब्र पर
स- बीज एक श्रद्धा - सुमन .

समय चक्र था गतिमान
पावस ने कराया अचेतन बीज  को
मधुर मधुर अमृत पान
हरित हो गया कब्र का आँगन.

लेकर पीले पत्ते की शक्ति
और लेकर उसका छुपा  हरा - यौवन
फुट पडा बीज अंकुर रूप में  और
प्रस्फुटित हुआ पौधा  एक नया
लेकर जीवन का  नयापन,
पत्ते को मिला एक नव् - जीवन
यही   है , यही है , यही है
प्रकृति का नियम ..........


रचना : कालीपद "प्रसाद "
          ©  सर्वाधिकार सुरक्षित





Monday 6 August 2012

प्रिय का एहसास

 


जीवन के मरुस्थल में प्रिये
                                  तुम ही प्याऊ हो ,
नीरस जिंदगी में तुम                             
                                 मधुमय  रस हो,
टूटते लय की  जिंदगी में ,
                                   तुम जीवन संगीत हो,
वायु है ,जल है तुम हो प्रिये
                                 तभी तो मुझे तुम्हारा खुसबू का एहसास है.

मेरे बेचैन मन की चैन हो ,
                                  सुप्त अचेतन मन की चेतना  हो ,
अविरल स्पंदित   मेरे दिल का 
                                  तुम स्पंदन हो,
क्या कहूँ   शब्दों में , एहसास करो
                                  की तुम मेरे क्या हो ?



रचना : कालिपद "प्रसाद " 
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