चाहता हूँ, तुझे मना लूँ प्यार से
लेकिन डर लगता है तेरी नाराज़गी से |
घर मेरा तारीक के आगोश में है
रोशन हो जायेगा तुम्हारे बर्के हुस्न से |
इन्तेजार रहेगा तेरा क़यामत तक
नहीं डर कोई गम-ए–फिराक से |
मालुम है, कुल्फ़ते बे-शुमार हैं रस्ते में
इश्क–ए–आतिश काटेगा वक्त इज़्तिराब से |
बर्के हुस्न तेरी बना दिया है मुझे बे–जुबान
करूँगा बयां दिल-ए-दास्ताँ,तश्न-ए–तकरीर से |
शब्दार्थ :बर्के =बिजली जैसा चमकीला सौन्दर्य
तारीक़= अँधेरा
तश्न-ए-तकरीर=होटों की भाषा
कालीपद 'प्रसाद'
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