बचपन में मैंने
तुम्हारी ऊँगली पकड़कर
चलना सिखाया था ,
विद्यालय के सीढ़ियों पर
हाथ पकड़कर चढ़ना सिखाया था,
और तुम चढ़ती गई बेझिझक,
ऊपर और ऊपर
निर्विघ्न ,निश्चिन्त ,
होकर निडर
क्योंकि
तुम्हारी सीढ़ी थी "मैं"।
मुझपर तुम्हे पूरा भरोषा था
एक आस्था थी ,अटूट विश्वास था ,
तुम ऊपर और ऊपर चढ़ गई.।
फिर क्या हुआ ?
क्या खता हो गई ?
वो विश्वास ,वो भरोषा क्यों टुटा ?
कि तुमने उस सीढ़ी को
एक लात मरकर गिरा दिया ?
सोचकर यही कि
सीढ़ी का काम ख़त्म हो गया ?
अचंभित हूँ,निर्वाक हूँ.।
कहने को बहुत कुछ है
पर दिल नहीं चाहता कुछ कहूँ
क्योंकि अपने लगाये पौधे को
फलते फूलते देखना चाहता हूँ ।
पर बिना मांगे
एक नसीहत देता हूँ
इसे याद रखना।
सीढ़ी की जरुरत तुम्हे फिर होगी
यदि तम्हे है और ऊपर चढना
या फिर जब चाहोगे नीचे उतरना।
पर जब भी किसी सीढ़ी का सहारा लो
उसके लिए कृतज्ञता के दो शब्द कहना
उसे कभी लात मारकर न गिराना।
कालीपद "प्रसाद "
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