मेरे विचार और अनुभुतियों की गुलिस्ताँ में आपका स्वागत है |.... ना छंदों का ज्ञान,न गीत, न ग़ज़ल लिखता हूँ ....दिल-आकाश-उपज,अभ्रों को शब्द देता हूँ ........................................................................ ............. इसे जो सुन सके निपुण वो हैं प्रवुद्ध ज्ञानी...... विनम्र हो झुककर उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ |
Thursday, 19 October 2017
Wednesday, 11 October 2017
ग़ज़ल
सटीक बात की’,
आक्षेप बाँधनू क्या है
ये’ बातचीत में’
खरसान बैर बू क्या है?
नया ज़माना’ नया है तमाम
पैराहन
अगर पहन लिया’ वो वस्त्र, फ़ालतू क्या है |
हसीन मानता’ हूँ मैं
उसे, नहीं शोले
नजाकतें जहाँ’ है
इश्क, तुन्दखू क्या है |
किया करार बहुत आम
से चुनावों में
वजीर बनके’ कही
रहबरी, कि तू क्या है ?
हो’ वुध्दिमान मिला राज, अब करो कुछ भी
उलट पलट करो’ खुद
आप, गुफ्तगू क्या है |
ये’ कर्ण फूल, गले हार,
हाथ में कंगन
पहन लिया सभी’ कुछ,
और आरजू क्या है ?
जला जो’ आग से’
कश्मीर, भष्म में है क्या
वो’ खंडहर में’ बची
लाश की’ जुस्तजू क्या है ?
सभी को’ है पता’
मंत्री बना अभी “काली”
नहीं तो’ देश में’
उसकी भी’ आबरू क्या है |
शब्दार्थ :-
बाँधनू – मन गढ़ंत ,
खरसान –तेज , बू –गंध
तुन्दखू-गुस्सैल;तेज
मिज़ाज़, जुस्तजू –खोज, गवेषणा
कालीपद 'प्रसाद'
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