क्या कहूँ कुछ सूझता
नहीं ,काल-कर्कट है बड़ा क्रूर
तुड़वा दिया कसम
हमारी ,कर दिया तुमको मुझ से दूर|
खाए थे कसम हमने
मिलकर ,साथ रहेंगे जिंदगी भर
तुम हो कहीं पर ,मैं
हूँ कहीं ,हो गए हम लाचार मजबूर |
हवा करती शोरगुल जब
,पत्तों का होता है सर- सराहट
लगता है यहीं कहीं
पास में हो तुम,नहीं हो हमसे दूर |
रजनी-गंधा रजनी भर
जगकर, बिखेरती जब अपनी महक
मन-कोयल मेरा चाहता
है गाना,पर गायब है उसका सुर |
बादल के काले
घुंघराले बाल ,ज्यों उड़ते फिरते आस्मां में |
लगता है तुम उड़ रही
हो ,उड़ रहे हैं तुम्हारे काले चिकुर |
लड़ना झगड़ना ,चुप
रहना, फिर बोलना याद आ रही है
अंतिम क्षण तक तेरी
याद,दिल को मेरे बेक़रार करेगी जरुर |
कालीपद "प्रसाद"
© सर्वाधिकार सुरक्षित
behatreen prastuti
ReplyDeletebehatreen prastuti
ReplyDeletemarmik .....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कोमल भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteआपका आभार तुषार रस्तोगी जी !
ReplyDeleteसुंदर भाव !
ReplyDeleteहार्दिक आभार डॉ रूप चन्द्र शास्त्री जी !
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteप्रेम औए विरह के रंग में लिखी भावपूर्ण याचना ...
ReplyDeletebahut sunder yadon ke bandhan me bandhi rachana ..
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