रचना !
कोरी आस्था मिलाकर, भ्रम का बुना जाल
पेट अपना भरते हैं, बेच नाम गोपाल |1|
पेट अपना भरते हैं, बेच नाम गोपाल |1|
पाप पुन्य का भय दिखा, ठगते है साधू संत
जनता है भेढ़ बकरी, कसाई है महन्त |२|
जनता है भेढ़ बकरी, कसाई है महन्त |२|
सच्चे सन्त-बाबा विरल, सच्चे को करो नमन
बे-नकाम कर नक़ल को, कर सच का जयगान |३|
बे-नकाम कर नक़ल को, कर सच का जयगान |३|
धर्म का मुख्य द्वार है, अहिंसा भरा जीवन
साधना से जगता है, सुप्त मन का चेतन |५४|
साधना से जगता है, सुप्त मन का चेतन |५४|
शुद्ध विचार करत दूर, मानस का सब रोग
ईर्ष्या, द्वेष, घृणा है, मन का कठोर रोग |५|
ईर्ष्या, द्वेष, घृणा है, मन का कठोर रोग |५|
© कालीपद ‘प्रसाद’
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