Sunday, 27 April 2014

रात्रि (सांझ से सुबह )


                        








                              

 स्वर्णिम किरणों को समेटकर सूरज
छिप गए जब पश्चिम के अस्ताचल
काली चादर ओढ़ लिया धरती ने
अँधेरा छाया सारे जहाँ ,आसमां, उदयाचल |

संध्या ने घरों में चिराग जलाया
जंगल में लगा जुगनुओं का पहरा
अनन्त आसमान का अँधेरा गहरा
चाँद ने चाँदनी से उसका श्याह हरा |

शब्- ए- तारिक  में  चाँद  ने
आसमान को तारों के हवाले कर दी
धरती पर जुगनू आसमान में तारे
दोनों  में  जमी  खूब जुगलबंदी |

ताब  सुबह  महफ़िलें  सजती रही
अंजुम जुगनुओं के द्वन्द चलती रही
कौन जीता कौन हारा तय नहीं हुआ
पूर्वांचल में प्रभात किरण का आगौन हुआ |

उदयगिरी पर जब सहस्रभानु का उदय हुआ
काली चादर रजनी का धुलकर सफ़ेद हुआ
रात्रि विराम से रवि –किरण प्रखर हुआ
फैलकर चहुँ ओर रविराज्य कायम किया |  

निशाचरी प्रवृत्ति पर लगा विराम
जुगनू और तारों को मिला विश्राम
चिराग की अंतिम लौ ने मुंदलिया आँख
उगते सूरज के सामने हुए नत मस्तक |


कालीपद 'प्रसाद '
सर्वाधिकार सुरक्षित

 

12 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
    सादर
    अनु

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  2. निशाचरी प्रवृत्ति पर लगा विराम
    जुगनू और तारों को मिला विश्राम
    चिराग की अंतिम लौ ने मुंडलिया आँख
    उगते सूरज के सामने नत हुए मस्तक |
    bahut sundar abhivyakti .badhai

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  3. अति सुन्दर...बहुत खूब...

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (28-04-2014) को "मुस्कुराती मदिर मन में मेंहदी" (चर्चा मंच-1596) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. आपका आभार डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी !

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  5. स्वर्ण हो गया
    रवि की आँख खुली
    निशा चादर |
    बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..

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  7. बहुत बढिया प्रस्तुति..

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  8. बहुत सुन्दर और प्रभावपूर्ण रचना
    मन को छूती हुई
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर

    आग्रह है----
    और एक दिन

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  9. बेहतरीन रचना !

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