Thursday, 3 November 2016

सनम नहीं कहीं भी तो सराब पहने हुए

ग़ज़ल

अवाम में सभी जन हैं इताब पहने हुए
सहिष्णुता सभी की इजतिराब पहने हुए |
गरीब था अभी तक वह, बुरा भला क्या कहे
घमंडी हो गया ताकत के ख्याब पहने हुए |
मसलना नव कली को जिनकी थी नियत, देखो
वे नेता निकले हैं माला गुलाब पहने हुए |
अवैध नीति को वैधिक बनाना है धंधा
वे करते केसरिया कीनखाब पहने हुए |
शबे विसाल की दुल्हन को इंतज़ार रहा
शबे फिराक हुई इजतिराब पहने हुए |
शबे दराज़ तो बीती बिना पलक मिला कर
सनम नहीं कहीं भी तो सराब पहने हुए |
शब्दार्थ :
इताब –गुस्सा ; इजतिराब –बेचैनीकीनखाब – रेशमी वस्त्र ,कपड़ा ; सराब – मृग मरीचिका ,भ्रम
शबे विसाल – मिलन की रात: शबे फिराक – विरह की रात,शबे दराज़ –लम्बी रात
© कालीपद ‘प्रसाद’

1 comment:

  1. बहुत ही उम्दा .... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)

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