बिन तेरे जिंदगी
में’ पहरेदार भी नहीं
दुनिया में’ अब किसी
से’ मुझे प्यार भी नहीं |
बेइश्क जिंदगी नहीं’
आसान है यहाँ
इस मर्ज़ की दवा मिले’
आसार भी नहीं |
कटती नहीं निशा ते’रे’
दीदार के बिना
दीदार और का कभी’
स्वीकार भी नहीं |
अब काटना है उम्र
ख़ुशी हो या’ गम सनम
तू याद में बसेगी’
तो’ दुश्वार भी नहीं |
अनजान देश में कभी’
तुम यदि उदास हो
सन्देश किस तरह मिले’
अखबार भी नहीं |
दीवानगी 'प्रसाद' पे’
वहशत की हद हुई
अब वेदना का’ को’ई’
भी आजार भी नहीं |
दिल से अगर कभी कभी’
मिलता नहीं है’ दिल
समझौता’ मायने नहीं’
तकरार भी नहीं |
इनकी कला बखान करूँ
क्या खुदा बता
लड़ते हैं’ और हाथ
में’ तलवार भी नहीं |( गिरह )
शब्दार्थ
दुश्वार –मुश्किल
; आजार – दुःख/दर्द का स्वाद
वहशत – पागलपन /भय
कालीपद ‘प्रसाद’
वाह बहुत ख़ूब !
ReplyDeleteलाजवाब !! बहुत खूब आदरणीय।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-04-2017) को
ReplyDelete"लोगों का आहार" (चर्चा अंक-2616)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत अच्छी गजल
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