Wednesday, 11 October 2017

ग़ज़ल

सटीक बात की’, आक्षेप बाँधनू क्या है
ये’ बातचीत में’ खरसान बैर बू क्या है?

नया ज़माना’ नया है तमाम पैराहन
अगर पहन लिया वो वस्त्र, फ़ालतू क्या है |

हसीन मानता’ हूँ मैं उसे, नहीं शोले
नजाकतें जहाँ’ है इश्क, तुन्दखू क्या है |

किया करार बहुत आम से चुनावों में
वजीर बनके’ कही रहबरी, कि तू क्या है ?

हो वुध्दिमान मिला राज, अब करो कुछ भी   
उलट पलट करो’ खुद आप, गुफ्तगू क्या है |

ये’ कर्ण फूल, गले हार, हाथ में कंगन  
पहन लिया सभी’ कुछ, और आरजू क्या है ?

जला जो’ आग से’ कश्मीर, भष्म में है क्या
वो’ खंडहर में’ बची लाश की’ जुस्तजू क्या है ?

सभी को’ है पता’ मंत्री बना अभी “काली”
नहीं तो’ देश में’ उसकी भी’ आबरू क्या है |

शब्दार्थ :-
बाँधनू – मन गढ़ंत , खरसान –तेज , बू –गंध
तुन्दखू-गुस्सैल;तेज मिज़ाज़, जुस्तजू –खोज, गवेषणा

कालीपद 'प्रसाद'

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (13-10-2017) को
    "कागज़ की नाव" (चर्चा अंक 2756)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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