Sunday, 22 July 2012

मृग-मरीचिका

जिन्दगी के सफ़र में
हम मन्जिल की ओर बढ़ने  लगे
कदम दर कदम संभलते रहे ,
और किस्तों  में दूरियाँ नापते रहे .
अफ़सोस मंजिल हम से दूर भागती रही ,
हमे तेज और तेज भगाती रही।

मंजिल जिसको मैं समझा था ,
व मजिल नहीं थी।
एक पड़ाव था ? या मृग-मरीचिका थी ?,
आखों का दोष था? या समझ का फ़ेर ?
जब समझा , देखा , मेरी जिंदगी (मंजिल )
मेरे सामने खड़ी थी।

जिसको मंजिल को पाना है
व शिकवा नहीं करते ,
जो शिकवा में उलझते हैं
व मंजिल नहीं पाते .


रचना :  कालीपद "प्रसाद "  
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