सात फेरों के बंधन में बंध गए हम
दो शरीर,एक आत्मा हो गए हम !
एक एक विन्दु सम जीवनधारा में
बहते रहे साथ साथ ,
डूबकर प्रेम के अथाह सागर में
तय करते रहे जीवन पथ |
दरिया में कुछ लहरें उठी
गिरी ,फिर उठी ,
इस उठापटक ने ऐसा कुछ करना चाहा
प्रेम-बंधन के डोर को तोडना चाहा
कोशिश बहुत किया पर तोड़ ना सका ,
पर जख्म कुछ ऐसा दिया
मन,प्राण सब घायल हुआ |
"सात फेरों का अटूट बंधन है "
यह विश्वास टूट गया,
कातिल ज़ख्म ने बंधन को ढीला किया
फिर भी हम बहते रहे साथ साथ
नहीं छोड़े एक दुसरे का हाथ |
बहते बहते कभी तुम मुझ से और
कभी मैं तुम से टकराता
और यूँही चलती रही हमारी जीवन की धारा|
लहरों की यूँ उथलपुथल
हमदोनो पर भारी पड़ा|
कभी तुमको ले जाता मुझ से दूर
कभी मुझको ले जाता तुमसे दूर |
धीरे धीरे बढती गई दुरियाँ
हम हो गए बहुत दूर |
अब मैं एक किनारे में हूँ तो
तुम दुसरे किनारे
मानो अनन्त काल से है प्रतीक्षारत
मिलने की आस लिए नदी के दो किनारे |
धारा यूँ बहती जायगी ,
मिल जायगी सागर में ,
तुम खो जाओगी,मैं खो जाऊंगा
सागर के अतल गहराई में |
असंख्य धाराएं होंगी ,
होंगे असंख्य बुँदे हम तुम जैसे
कौन किसको पहचानेगा ?
क्या हम मिल पायेंगे फिरसे ?
यही चिंता सताती मझे
करती मुझे बेहाल ,
कैसे काटूँगा दिवस रजनी तुम बिन
कैसे जानूंगा तम्हारा हाल..........
क्या दो आत्माओं के प्रेम का यही है अंत ?
कालीपद "प्रसाद "
सर्वाधिकार सुरक्षित
दो शरीर,एक आत्मा हो गए हम !
एक एक विन्दु सम जीवनधारा में
बहते रहे साथ साथ ,
डूबकर प्रेम के अथाह सागर में
तय करते रहे जीवन पथ |
दरिया में कुछ लहरें उठी
गिरी ,फिर उठी ,
इस उठापटक ने ऐसा कुछ करना चाहा
प्रेम-बंधन के डोर को तोडना चाहा
कोशिश बहुत किया पर तोड़ ना सका ,
पर जख्म कुछ ऐसा दिया
मन,प्राण सब घायल हुआ |
"सात फेरों का अटूट बंधन है "
यह विश्वास टूट गया,
कातिल ज़ख्म ने बंधन को ढीला किया
फिर भी हम बहते रहे साथ साथ
नहीं छोड़े एक दुसरे का हाथ |
बहते बहते कभी तुम मुझ से और
कभी मैं तुम से टकराता
और यूँही चलती रही हमारी जीवन की धारा|
लहरों की यूँ उथलपुथल
हमदोनो पर भारी पड़ा|
कभी तुमको ले जाता मुझ से दूर
कभी मुझको ले जाता तुमसे दूर |
धीरे धीरे बढती गई दुरियाँ
हम हो गए बहुत दूर |
अब मैं एक किनारे में हूँ तो
तुम दुसरे किनारे
मानो अनन्त काल से है प्रतीक्षारत
मिलने की आस लिए नदी के दो किनारे |
धारा यूँ बहती जायगी ,
मिल जायगी सागर में ,
तुम खो जाओगी,मैं खो जाऊंगा
सागर के अतल गहराई में |
असंख्य धाराएं होंगी ,
होंगे असंख्य बुँदे हम तुम जैसे
कौन किसको पहचानेगा ?
क्या हम मिल पायेंगे फिरसे ?
यही चिंता सताती मझे
करती मुझे बेहाल ,
कैसे काटूँगा दिवस रजनी तुम बिन
कैसे जानूंगा तम्हारा हाल..........
क्या दो आत्माओं के प्रेम का यही है अंत ?
कालीपद "प्रसाद "
सर्वाधिकार सुरक्षित
बहुत प्रभावशाली भावाभिव्यक्ति ! सुंदर रचना ! विरह वेदना मुखर है कविता में ! सब कुशल मंगल हो यही आशा है !
ReplyDeleteसुंदर !
ReplyDeletesundar rachna......virah vedna liye.....
Deleteमिलन, वेदना विरह ... सब कुछ समेट के लिखी रचना .. भावमय ...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,लोहड़ी कि हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteविरह ही प्रेम को बढ़ती है ....सुंदर भाव पूर्ण रचना।
ReplyDeleteबहुत सुंदर.
ReplyDeleteभावमय,बहुत सुंदर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteRECENT POST -: कुसुम-काय कामिनी दृगों में,
आपका आभार राहुल जी !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
ReplyDeleteऔर ये कहानी सबकी ही है....
न हाथ छोड़ा जाता है...
और न ही पकड़ ही मजबूत रह गयी है...!
और यहीं से शुरू होता है ..
एक नया अध्याय...
जीवन को जीना है तो
जो है जैसा भी है...
सब कुछ स्वीकार करते जाओ... !
बहुत खूब...बहुत खूब...इस भाव को कितने लोग मान्यता देंगे...पता नहीं...लेकिन हर दिल में ये बात कहीं न कहीं होगी ज़रूर...! शुभमस्तु....!!
भाव को गहराई से आत्मसात करने के लिए आभार ! हर दिल में यह भाव होता है कहीं उपरी सतह पर कही गहराई में | आभार ||
Deleteबहुत ही बढ़िया व सुंदर रचना सर , धन्यवाद
ReplyDeleteनया प्रकाशन -: वेबसाइटव ब्लॉग(यू आर एल) को submit करें ४०० सर्चइंजन के साथ -
जैसे आता है रात के बाद दिन,
ReplyDeleteवेसे ही होगा विरह के बाद मिलन। सकारात्मक रहें वैसा ही होगा।
नदी के दोनों किनारे एक दूसरे के समानान्तर चलने को विवश हैं...सुंदर रचना...
ReplyDeleteमिलन, वेदना, विरह और पुनर्मिलन को अपने में संजोए बढ़िया कविता....अभी-अभी आपके ब्लॉग का अनुसरण भी कर लिया है;-))
ReplyDeleteसादर शुभकामनाएँ!!
भावपूर्ण रचना ...बिखरते परिवारों पर समसामयिक चिंतन
ReplyDeleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति ,मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteप्रेम में दो होते ही नहीं..जहाँ दो है वहाँ प्रेम ही नहीं...
ReplyDeleteउत्तम प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार भाई जी-
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteआसक्ति की चाह में साथ चलते किनारे..
ReplyDeleteप्रभावी रचना...
ReplyDeleteअत्यंत सुंदर रचना है।बधाई
ReplyDeleteनक़शे -सूरत को मिटा , आश्ना , मानी का हो
ReplyDeleteक़तरा भी दरिया है , जो दरिया में शामिल हो जाये .
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- आतिश
रूप हटा दो , अर्थ (सच ) को पकड़ो
बूँद सागर ही है , सागर से मिलकर
Forget d features / appearances, seek d meaning / real , instead
A drop that merges in d ocean , is a ocean itself