कुटिल काल-कर्कट ने
कुतर कुतर काटकर
हाड़-माँस के इस ढाँचे को
बनाया खोखला काया को,
एक खंडहर
जर्जर घर,प्रकम्पित थर-थर
गिरने को आतुर
बे-घर कर आत्मा को l
जीवन के दिन, कम हुए प्रतिदिन
शनै: शनै: सब छुट्ता गया ,
फिर आया वो दिन
जीवन का शेष दिन
जब आत्मा ने भी
शरीर को छोड़ दिया l
कैसी है देव लीला
प्राणी की इह लीला
समझ न पाये नर
क्या है रहस्य इसका l
धरती से आसमान तक
उससे भी परे अन्तरिक्ष तक
खोजा है सब जगह
पता नहीं लगा पाया रब का l
समझ में कुछ आता है
वक्त ही सृजक है
वक्त ही संहारक है
जीवन और मृत्यु का
वही निर्णायक है l
कितना भी जतन करो
दुआ और दवा करो
होता ठीक वही है
निर्णायक जो चाहता है lकालीपद "प्रसाद"
सार्थक सुन्दर गहन प्रस्तुति ! बहुत बढ़िया !
ReplyDeleteसार्थक रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...
ReplyDeletesarthak abhivykti
ReplyDeletesach kaha....sarthak prastuti
ReplyDeleteसहमत,
ReplyDeleteकविता अच्छी लगी
शाश्वत सत्य ।
ReplyDeleteसत्य लिखा है .. गहरा सत्य ...
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