Tuesday, 12 May 2015

हक़–ओ-इन्साफ़- तकती करना





क़ाज़ी भी है मजबूर ,क़ातिल को बचाना है
एक तरफ हक़ हैं ,दुसरे हुज़ूरे आला है |

एमाँल-ए-शैतान१ ने ,दुबोआ था कश्ती मजधार में
बच गए कुल्ज़ुमे सरसर२ से,रब की मेहरो बफा३ है |

हक़-ओ-इन्साफ़ एक सिक्के के दो पहलू हैं
एक ऊपर है तो दूसरा निश्चित ही नीचे है |

वो दौर और था ,हर बात में मेरी वह खुश होती थी
यह दौर और है ,हर बात से मेरी वह चिढ जाती है |

कुछ वक्त की नजाकत है ,कुछ उम्र का है तकाज़ा
दोष नहीं उनका कोई .अब हालत ही हम पर हावी है |

गिला नहीं कोई ऐ जिंदगी तुझसे ,पर इतना बता दे
यात्रा के हर मोडपर ,तू मुझसे कितना इन्साफ़ किया है ?

१ ..दुष्कर्म ,शैतान का काम   २. समुद्री तूफ़ान ३. ईश्वर की क्रपा 

कालीपद 'प्रसाद'

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर भाव

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  2. सुन्दर अहसास..

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  3. बहुत सुन्दर भाव...

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  4. सत्य बयां किया है, वह दौर कुछ और था, यह दौर और है ....
    बहुत खूबसूरत रचना। आभार

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  5. आदरणीय काली प्रसाद जी इस सुंदर रचना के लिए तहे दिल बधाई सादर

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  6. सत्य बयां किया है,खूबसूरत रचना। आभार

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