क़ाज़ी भी है मजबूर
,क़ातिल को बचाना है
एक तरफ हक़ हैं
,दुसरे हुज़ूरे आला है |
एमाँल-ए-शैतान१ ने
,दुबोआ था कश्ती मजधार में
बच गए कुल्ज़ुमे सरसर२ से,रब की मेहरो बफा३ है |
हक़-ओ-इन्साफ़ एक सिक्के
के दो पहलू हैं
एक ऊपर है तो दूसरा
निश्चित ही नीचे है |
वो दौर और था ,हर
बात में मेरी वह खुश होती थी
यह दौर और है ,हर
बात से मेरी वह चिढ जाती है |
कुछ वक्त की नजाकत
है ,कुछ उम्र का है तकाज़ा
दोष नहीं उनका कोई
.अब हालत ही हम पर हावी है |
गिला नहीं कोई ऐ
जिंदगी तुझसे ,पर इतना बता दे
यात्रा के हर मोडपर
,तू मुझसे कितना इन्साफ़ किया है ?
१ ..दुष्कर्म ,शैतान का काम २. समुद्री तूफ़ान ३. ईश्वर की क्रपा
कालीपद 'प्रसाद'
nice
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव
ReplyDeleteसुन्दर अहसास..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव...
ReplyDeleteसत्य बयां किया है, वह दौर कुछ और था, यह दौर और है ....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना। आभार
आदरणीय काली प्रसाद जी इस सुंदर रचना के लिए तहे दिल बधाई सादर
ReplyDeleteसत्य बयां किया है,खूबसूरत रचना। आभार
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