कोई नहीं सुखी यहाँ, राजा हो या रंक
प्रजा से दुखी राजा, राज-जुल्म से रंक ||1||
वक्त कभी रुकता नहीं, सुख-दुःख विराम हीन
ख़ुशी में मन आनान्दित, दुख में मन है मलिन ||२||
सुख-दुःख नहीं अलग चीज़, सुख का हिस्सा है दुःख
सुख ज्यादा, दुःख कम कभी, सुख न्यून, ज्यादा दुःख ||३||
सुख गैरहाजिर है तो, दुःख होत है हाज़िर
सुख जब प्रबल होत है, दुःख है गैर हाज़िर ||४||
कर्मचक्र चलता सदा, कर्म में बंधे जीव
कृत्य से मिलती मुक्ति, कर्म मुक्ति की नीव ||५||
पशु पक्षी मूक जीव है, पर उनमें हैं समझ
जीव में मानव श्रेष्ठ, है स्वार्थी नासमझ ||६||
समझना चाहते नहीं, समझ के बावजूद
स्वार्थी बनकर आदमी, गंवाता है वजूद ||७||
कालीपद ‘प्रसाद’
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-03-2016) को "ख़्वाब और ख़याल-फागुन आया रे" (चर्चा अंक-2273) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यह दोहे नहीं हैं। दोहा छन्द का अध्ययन कीजिए मित्र।
ReplyDelete:)
Deletenice lines
ReplyDeleteSunder lines...
ReplyDeleteMere blog ki new post par aapke vichro ka intzaar hai.
शानदार पोस्ट सर
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