Tuesday, 21 June 2016

ग़ज़ल

बह्र: २१२२ २१२२ २१२ 

सारी सारी रात-जग जिन के लिए 
पूछते वे जागरण किन के लिए |1|

चाँद तारों तो  झुले  हैं  रात में 
एक सूरज को रखा दिन के लिए ||

आसान नहीं भूलना यूँ भूत को 
आज तक तो मोह है इन के लिए ||

रात भर आँसू कभी थमती नहीं  
अश्रु जल यूँ लुडकते किन के लिए||

वो सुखी हैं या दुखी किन को पता
फूल जंगल में खिले किन के लिए ||

जानते थे हम जुदा होंगे कभी 
क्या जतन करते कभी इन के लिए ||

अब इन्हें संसार में आना नहीं                                                       
कौन रोये इस जहाँ इन के लिए ||

वो कभी पीड़ा समझना चाहती 

क्लेश हम पीते गए जिनके लिए ||

कालीपद 'प्रसाद'

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 22 जून 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-06-2016) को ""वर्तमान परिपेक्ष्य में योग की आवश्यकता" (चर्चा अंक-2381) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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