Friday, 6 January 2017

ग़ज़ल

काले बादल से हवा में भी नमी लगती है |
दिल के रोने से ये आँखे भी गिली लगती है ||

रजनी के आँसू से धरती ने बुझाया है प्यास|
पाँव रखता हूँ तो हलकी सी नमी लगती है||

यह सियासत भी बड़ी बेवफा है, हरदम धूर्त |
ना पिता की हुयी ना पति की,कटी लगती है ||

इस तन्हाई में तेरी याद हमेशा आई |
क्या करूँ मैं ये फिजायें भी लुटी लगती है ||

दीप की रोशनी से धरती चमकती है जब |
धरती की साडी तो हीरे ही जड़ी लगती है  ||

ढक गई है धरा पत्तों की हरी चादर से |
रूप में वह नई दुल्हन से भली लगती है ||


© कालीपद ‘प्रसाद’

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