Sunday 10 September 2017

ग़ज़ल

यह खुश नसीबी’ ही थी’, कि तुमसे नज़र मिले
हूराने’ खल्क जैसे’ मुझे हमसफ़र मिले |
किस्मत कभी कभी ही’ पलटती है’ अपनी’ रुख
डर्बी के ढेर में तेरे जैसे गुहर मिले |
था बेसहारा’ गरीब, सहारा मिला नहीं
क्या लाग देख जान, मुझे तेरा घर मिले |
है दूर देश में पिया’ मेरे, भेजना है ख़त
वीरान मुल्क में कोई तो नामबर मिले |
मिलते रहे सदा गले’ ओ हाथ रस्म में
मजबूत दोस्ती में’ जिगर से जिगर मिले |
नेता सभी पसंद करे नार, ज़र, ज़मीन
बंधन नहीं कहाँ कहाँ से किस कदर मिले |
इंसान हो गए हैं’ दयाहीन संगदिल
इंसानियत को’ एक रहम दिल बसर मिले |
खुद को न बंद रखना’ उदासी हिजाब में
संसार में सदैव को’ई रहगुज़ार मिले |
गुहर =गौहर ,मोती
लाग=मज़ाक़
बसर =आदमी , रहगुज़ार = रास्ता, राह
कालीपद 'प्रसाद'

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (11-09-2017) को "सूखी मंजुल माला क्यों" (चर्चा अंक 2724) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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