बुझे’ रिश्तों का’
दिया अब तो’ जला भी न सकूँ
प्रेम की आग की’ ये
ज्योत बुझा भी न सकुं |
हो गया जग को’ पता,
तेरे’ मे’रे नेह खबर
राज़ को और ये’ पर्दे
में’ छिपा भी न सकूँ |
गीत गाना तो’ मैं’
अब छोड़ दिया ऐ’ सनम
गुनगुनाकर भी’ ये’
आवाज़, सुना भी न सकूँ |
वक्त ने ही किया’
चोट और हुआ जख्मी मे’रे’ दिल
जख्म ऐसे किसी’ को
भी मैं’ दिखा भी न सकूँ |
बेरहम है मे’रे’ तक़दीर,
प्रिया को लिया’ छीन
ये वो’ किस्मत का’
लिखा है जो’ मिटा भी न सकूँ |
बाल सूरज हो’ गया
अस्त है’ सूनी माँ’ की’ गोद
आँख सूखी, न गिला
किन्तु रुला भी न सकूँ |
ख़ूनी चालाक था’ गायब
किया’ सब औजारें
साक्ष्य कोई नहीं’
उसको तो’ फँसा भी न सकूँ |
मिला’ है प्यार मुझे
मांगे’ बिना यार मे’रे
वो’ है’ ‘काली’ मेरा
पाथेय, लुटा भी न सकूँ |
कालीपद 'प्रसाद'
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 18 सितंबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"
ReplyDeleteबहुत ख़ूब ! कालीपद जी
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब...
ReplyDeleteलाजवाब !! बहुत खूब आदरणीय ।
ReplyDeletethanks
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