Sunday, 17 September 2017

ग़ज़ल

बुझे’ रिश्तों का’ दिया अब तो’ जला भी न सकूँ
प्रेम की आग की’ ये ज्योत बुझा भी न सकुं |

हो गया जग को’ पता, तेरे’ मे’रे नेह खबर
राज़ को और ये’ पर्दे में’ छिपा भी न सकूँ | 

गीत गाना तो’ मैं’ अब छोड़ दिया ऐ’ सनम
गुनगुनाकर भी’ ये’ आवाज़, सुना भी न सकूँ |

वक्त ने ही किया’ चोट और हुआ जख्मी मे’रे’ दिल  
जख्म ऐसे किसी’ को भी मैं’ दिखा भी न सकूँ |

बेरहम है मे’रे’ तक़दीर, प्रिया को लिया’ छीन
ये वो’ किस्मत का’ लिखा है जो’ मिटा भी न सकूँ |

बाल सूरज हो’ गया अस्त है’ सूनी माँ’ की’ गोद
आँख सूखी, न गिला किन्तु रुला भी न सकूँ |

ख़ूनी चालाक था’ गायब किया’ सब औजारें
साक्ष्य कोई नहीं’ उसको तो’ फँसा भी न सकूँ |

मिला’ है प्यार मुझे मांगे’ बिना यार मे’रे
वो’ है’ ‘काली’ मेरा पाथेय, लुटा भी न सकूँ |

कालीपद 'प्रसाद'

5 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 18 सितंबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"

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  2. बहुत ही लाजवाब...

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  3. लाजवाब !! बहुत खूब आदरणीय ।

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