मैं जनम लूँगा
धरती पर आऊंगा
कभी सोचा भी नहीं।
कैसे सोचता मैं?
मेरी तो चेतना थी ही नहीं
नहीं पता, मेरी वजूद भी थी या नहीं।
कब कैसे एक ममतामयी
देवी के गर्भ में आया
कब तक रहा, कुछ पता नहीं।
उसकी गर्भ से कब
धरती पर भूमिष्ट हुआ
या किसी के हाथ ने थाम लिया ,पता नहीं।
आँखे जब खोली,
अँधेरा नहीं ,उजाला था
आँखे चौंधिया गई ,कुछ दिखा नहीं।
कान में कुछ आवाज
कुछ कोलाहल सुनाई पड़ी
किसी की आवाज ,या शंखध्वनि , पता नहीं।
डर से जब रोने लगा,
तब कोई कोमल स्पर्श मेरे माथे पर हुआ
किसी का होंठ था या कुछ और , पता नहीं।
भूख से मैं तड़फ रहा था
कुछ नहीं मैं कह पा रहा था
मुँह में कैसे अमृतधारा आई ,कुछ मुझे पता नहीं।
समय बीतता गया,मैं बढ़ता गया
नजर कभी इधर, कभी उधर
कभी कहीं टिक जाती ,क्या देखता ,पता नहीं।
एक नारी हरदम मुझे
सीने से लगा के रखी
दूध पिलाती ,लाड़ करती,कौन थी वह, पता नहीं।
उसका हँसना ,उसका बोलना
मुझे अब समझ में आने लगा
चाहा, कुछ बोलूं ,पर बोल कुछ मैं पाता नहीं।
बोलो "माँ .........". बोलो "माँ ........."
बार बार वह कहती मुझ से
बोला मैंने "माँ" तो आँसू उसकी रुकी नहीं।
आँसू उसकी बहती गई
पागल हो वह मुझे चूमती गई
प्यार था वह ,क्या था ,मुझे कुछ पता नहीं।
फिर जब मैं बोला" माँ ...माँ ...माँ ...."
हाथ के झूले में झुलाकर मुझे
बोली "हाँ मैं तेरी माँ " और माँ उसकी पहचान बन गई।
माँ ने सिखाया "बाबा "बोलना
गोद में डालकर कहा " यह बाबा है तुम्हारा "
माँ ,बाबा कैसा रिश्ता ? मुझे कुछ पता नहीं।
( आगे अगली पोस्ट में )
कालीपद "प्रसाद"
© सर्वाधिकार सुरक्षित
कालीपद "प्रसाद"
© सर्वाधिकार सुरक्षित
बढ़िया भाव |
ReplyDeleteशुभकामनायें ||
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति सोमवार के चर्चा मंच पर ।। मंगल मंगल मकरसंक्रांति ।।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव से लिखी खूबसरत रचना,,,बधाई,काली प्रसाद जी,,,
ReplyDeleteबेहद सुन्दर....आगे की प्रतीक्षा में..
ReplyDeleteमकर संक्रांति की शुभकामनाएं...
सादर
अनु
कुछ अलग सी पोस्ट, अच्छी लगी ..............
ReplyDeleteआप सबको मकर संक्रांति की शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना, प्रतीक्षा है अग्रिम पोस्ट की ...लोहिड़ी व मकर संक्रांति पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteमकर संक्रान्ति के अवसर पर
उत्तरायणी की बहुत-बहुत बधाई!
मकर संक्रान्ति की शुभ कामनाएँ !
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण प्रस्तुति ! बालक जब संसार में प्रवेश करता है अबोध ही होता है ! हर वास्तु हर रिश्ते से उसका परिचय माँ ही कराती है और बालक की हर छोटी से छोटी बात पर माँ ही बलि-बलि जाती है ! बहुत सुन्दर रचना ! मकर संक्रांति एवं लोहड़ी की हार्दिक शुभकामनाएं !
ReplyDeleteबच्चे की जुबानी -- या बचपन की कहानी .. कुछ पता नहीं ... बहुत ही सुन्दर और अलग रचना ...सादर
ReplyDelete,सशक्त अभिव्यक्ति अर्थ और विचार की
ReplyDelete. संक्रांति की मुबारकबाद .आपकी सद्य टिप्पणियों के लिए
आभार .
बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...
ReplyDeleteमर्म को उकेरती सारगर्भित रचना...
ReplyDeleteपहली बार आना हुआ आपके इस ब्लॉग पर। सुन्दर अभिव्यक्तियाँ मिलीं।
ReplyDeleteसादर
मधुरेश
मर्म को उकेरती सारगर्भित रचना.बहुत बहुत बधाई .
ReplyDeleteमाँ को नमन ...इंतज़ार रहेगा अगली कड़ी का :)
ReplyDeleteपहली बार आना हुआ आपके ब्लॉग पर,बहुत ही सुंदर कविता,माँ नमन तुम्हारा जिसने हमे जन्म दिया।
ReplyDeleteभूली-बिसरी यादें
वेब मीडिया
सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...मकर संक्रान्ति की शुभ कामनाएँ !
ReplyDeleteमुस्कुराहट पर ...ऐसी खुशी नहीं चाहता
ReplyDeleteबहुत सही ....सार्थक रचना..
ReplyDeleteआप सबको बहुत बहुत धन्यवाद,.इसका दूसरा भाग में आपका स्वागत है.
ReplyDeleteअच्छी भावपूर्ण रचना के लिए आभार !!
ReplyDeleteअति सुन्दर.
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना के लिए आभार!इंतज़ार रहेगा अगली कड़ी का .........
ReplyDeleteमाँ की यीद दिलाती कविता......बधाई
ReplyDeleteआपकी यह रचना बहुत ही सुंदर है…
ReplyDeleteमैं स्वास्थ्य से संबंधित छेत्र में कार्य करता हूं यदि आप देखना चाहे तो कृपया यहां पर जायें
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