मनुष्य को उन्नत सभ्यता पर गर्व है परन्तु यह सभ्यता ही उसका सर शर्म से झुक देती है। जब मनुष्य बर्बर ,असभ्य थे ,जंगल में रहते थे ,तब स्त्री पुरुष के रिश्ते आत्मीयता ,प्रेम ,सहमती से शुरू होता था , बलपूर्वक नहीं। आज तथा कथित सभ्य समाज में शायद आत्मीयता ,प्रेम ,सहमती का कोई स्थान नहीं। आज स्वार्थ ,पैसा, बाहुबल,छल ,हवस ,सामाजिक -राजनैतिक शक्ति ही सभी रिश्तों को निर्धारित करते है। आज घर से संसद तक विसंगतियां है और इसके पोषक है देश के ठेकेदार -पहरेदार। प्रस्तुत कविता में यही बात कही गई है।
नोट : यहाँ "हम का अर्थ -हम भारतवासी- जनता"
काश ! हम सभ्य न होते,
असभ्य रह कर
उन त्रिकाल दर्शी गुरुयों के
चरण- कमलों में बैठ कर,
माँ ,बहन ,भाई ,पिता को
परिवार ,पडोसी के रिश्तों को
समझ ,पहचान पाते।
गीता, रामायण ,पुराण आदि
के रस गान शायद ..
प्यास बुझाने के लिए
एक बूंद दे देते
औरों को भी देने के लिए प्रेरित करते।
पर हमें तो सभ्य बनना था,
सभ्य बने!
सभ्यता के मुक्त पवन में
खिले ,पले ,बढे !
सभ्यता से हमने कई बाते सीखी
बेबसी से रोती बहन की
इज्ज़त हमने लुटी ,
महाभारत से आगे निकलकर
उसे घर से बाहर सड़क पर फेंक दी।
प्यास लगी तो भाई के खून से
प्यास बुझाया।
जब मौका आया बूढ़े माँ बाप का
जिन्होंने हमें गोद में खिलाया था,
असंख्य चुम्बनों से प्यार किया था,
ऊँगली पकड़ कर चलना शिखाया था,
उन्हें आश्रम का राह दिखाया।
या
उनकी मृत्यु की कामना की।
हाँ , उनकी मृत्यु की कामना की
क्योंकि हम मात्रिघाती - पित्रिघाती
नहीं बनना चाहते .क्योकि
अभी हम थोड़ा असभ्य हैं।
पर हमें तो सभ्य बनना था,
सभ्य बने!
किसी के दुःख में अब
हमें दुःख नहीं होता ,
किसी के आंसू हमें नहीं रुलाता।
सभ्यता ने हमें स्वार्थी , निर्दयी
संवेदनहीन बनाया।
सच्चा सहानुभति हीन और
जबानी प्रेषण में निपुण बनाया।
यदि हम आधुनिक ,सभ्य ना होते ,
सुख-दुःख में औरों के साथी होते
काश ! हम सभ्य न होते!!
सभ्यता ने हमारे
पवित्र प्रेम को छीना
सोच,विचार ,मस्तिष्क में
केवल हवस का बीज बोया।
नारी को अब देवी नहीं ,
उसे एक भोग्य वस्तु ,अवला बनाकर
किया उनकी आबरू को
और इंसानियत को शर्मसार।
कानून के पहरेदार हैं लंगड़े ,अंधे ,बहरे
न चल सकते हैं ,
न देख सकते है ,
और न सुन सकते हैं .
केवल कु-बोल बोलते है, कुतंत्र चलाते है,
इनको और इनकी कुतंत्र को
बल से हम उखाड़ फेंकते
यदि हम असंस्कृत ,असभ्य होते
काश ! हम सभ्य न होते।
जब हम अनपढ़ गँवार थे
अपने हित, अहित से अनभिज्ञ थे
मानव के सुख सुविधायों ,
यहाँ तक कि ---
मानव कहलाने के अधिकार से
बंचित थे ,
फिर भी --
दूसरों के दुःख से
आँखें भर आती थीं ,
सुख-दुःख में साथ- साथ
रहने की चाह थी।
अब केवल चाहत है कि कुछ कर पाते
काश ! हम सभ्य न होते।
कालीपद "प्रसाद "
© सर्वाधिकार सुरक्षित
सभ्य? उन्नत,परिष्कृत होने के भ्रम में हम कंगाल हो गए
ReplyDeleteसही कहा आपने .आभार .
Deleteमधुर भाव लिये भावुक करती रचना.
ReplyDeleteआभार .
Deleteसब कह दिया एक कडवे सच के साथ उम्दा प्रस्तुति
ReplyDeletehttp://vandana-zindagi.blogspot.in/2013/01/blog-post_2.html
आभार .
Deleteकाश !
ReplyDeleteयहीं आकर हम हर बात का हल खोजते हैं ...
यथार्थ अभिव्यक्ति!!
ReplyDeleteआभार .
Deleteसही कहा है आपने अगर इसे सभ्यता कहते हैं तो हम असभ्य ही अच्छे ... सार्थक रचना...आभार
ReplyDeleteआभार .
Deleteसहमत -
ReplyDeleteप्रभावी
आभार .
Deletebehad sateek rachna..
ReplyDeleteआपने सटीक विवेचना की है .प्रकृति में नर और मादा पुरुष और प्रकृति के अधिकार समान हैं इस लिए एक संतुलन है ,प्रति -सम हैं प्रकृति के अवयव ,दो अर्द्धांश एक जैसे हैं .आधुनिक मानव एक
ReplyDeleteअपवाद है .एक अर्द्धांश को दोयम दर्जे का समझा जाता है उसके विरोध को पुरुष स्वीकार नहीं कर पाता ,उसकी समझ में नहीं आता है वह क्या करे लिहाजा वह प्रति क्रिया करता है .घर में नारी
स्थापित हो तो बाहर समाज में भी हो .इस दिशा में हर स्तर पर काम करना होगा .बलात्कार जैसे जघन्य अपराध तभी थमेंगे .
प्रासंगिक वेदना को स्वर दिया है .
अभी इस राख में चिन्गारियाँ आराम करती हैं - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआभार !
Deleteसच कहा..सभ्य होके भी हमने क्या कर लिया..सुन्दर रचना..
ReplyDeleteआभार !
Deleteसभ्य की परिभाषा का सटीक विश्लेषण
ReplyDeleteआभार !
Deleteखूब कहा...नववर्ष की शुभकामनाएं...
ReplyDeleteआपको भी नव वर्ष की शुभ कामनाएं .आभार .
Delete♥(¯`'•.¸(¯`•*♥♥*•¯)¸.•'´¯)♥
♥नव वर्ष मंगलमय हो !♥
♥(_¸.•'´(_•*♥♥*•_)`'• .¸_)♥
"काश ! हम सभ्य न होते !"
हां ! ऐसे तो न होते ... !
Kalipad "Prasad" जी
बहुत ख़ूब !
नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
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आपको भी नव वर्ष की शुभ कामनाएं .आभार .
ReplyDeleteसभ्यता के शायद अब मायने बदल गए हैं ... सभी तो उस समय ज्यादा थे हम ...
ReplyDeleteअओको २०१३ की शुभकामनायें ...
आपको भी नव वर्ष की शुभ कामनाएं .आभार .
Deleteपिछले दिनों विकलांगता पर एक कविता लिखी तब मैंने भी यही कहा था कि विकलांग तो कानून और देश के रक्षक हैं ....
ReplyDeleteऔर ये सभ्यता हमें हिंसा करने से रोकती है ....
सार्थक कविता ..
बधाई स्वीकारें ....!!
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Deleteहरकीरत जी ,
शायद सभ्यता की परिभाषा बदल गया : संसदीय भाषा का अर्थ होता था सुसंस्कृत भाषा ,संसद में बोलने लायक भाषा .अब संसद में गालियाँ दी जाती है .रेप ,डकैती के आरोपी का स्थान सुरक्षित है .हर चीज की परिभाषाएं बदल रही है.
आपको भी नव वर्ष की शुभ कामनाएं .आभार .
bahut sahi kahe.....
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