आस्था के बल पर गर्म, धर्म के सब दुकान
अन्धविश्वास बिकता है, सच्ची भक्ति बदनाम |1|
रूह चलाती काय को, यही आत्मा का गुण
काया में बसी आत्मा, खुद रूपहीन अगुण |२|
नाम अमृत को बांटो, भजो राम, हरिनाम
बेचकर राम नाम को, करो न, हरि बदनाम |३|
करता है सदा निराश, नकारात्मक सोच
भरोसा हो रब में तो, मिलेगी तुम्हे मोक्ष |४|
मानव जीवन में करे, यहाँ जो अच्छा काम
मिलती प्रशंसा यहाँ, जग में होता नाम |५|
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 16 मई 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सटीक सामयिक दोहे प्रस्तुति हेतु धन्यवाद !
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-05-2016) को "बेखबर गाँव और सूखती नदी" (चर्चा अंक-2344) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यह दोहे नहीं हैं। किसी सिद्ध दोहाकार के दोहों का अध्ययन कीजिए मित्र।
ReplyDeleteआदरणीय शास्त्री जी जरा इसमें त्रुटी बताने की कष्ट करे . परिभाषा के अनुसार इसमें विषम चरण में १३ और सैम चरण में ११ मात्राएँ है ,विषम में ज गण भी नहीं है, अंत लघु मात्र से हो रहा है, फिर किस दृष्टि से यह दोहा नहीं है उसका उल्लेख करें !
Deleteआदरणीय , परिभाषा के अनुसार भी दोहों की रचना सही नही है . दोहे के पहले और तीसरे चरण में 13-13 और दूसरे चौथे चरण में 11-11 मात्राएं होतीं है अन्त गुरु लघु से होता है . गण का तो सवाल ही नही है मात्रिक छन्द में .
Deleteआदरणीय , परिभाषा के अनुसार भी दोहों की रचना सही नही है . दोहे के पहले और तीसरे चरण में 13-13 और दूसरे चौथे चरण में 11-11 मात्राएं होतीं है अन्त गुरु लघु से होता है . गण का तो सवाल ही नही है मात्रिक छन्द में .
Deleteसुंदर आध्यात्मिक दोहे।
ReplyDeleteनिःसन्देह सुंदर से सुंदर भाव भी सुंदरतम शिल्प की अपेक्षा रखते हैं और शिल्प से समझौता छंद में असंभव है अतः दोहा नामक छंद भी अपनी सुनिश्चित धाराप्रवाह मात्राओं में ही जँचता है ।
ReplyDelete"प्रसाद" जी आपकी यह रचना वाकई बहुत ही भावपूर्ण हैं आप कृपया कर शब्दनगरी के पाठकों को भी अपनी रचनाएँ पढ़ने का मौका दें.........
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