एक पीला पत्ता, पेड़ से टुटा
हल्का हवा का एक झोंका
उसे ले उड़ चला.........
झूलते रहे वह हवा के झूले में
कभी ऊपर कभी नीचे
कभी धरती पर गिरे, फिर उड़े
और खाते रहे समीर के थपेड़े.
किस साख से टुटा? उसे नहीं पता
जाना कहाँ ? नहीं है ठिकाना
लाचार बेबस तक़दीर का मारा, बेचारा
उड़ना, गिरना , रुकना सब में
केवल समीर का सहारा.
कालचक्र की गति को कौन रोक पाया ?
जीवन के प्रतीक हरा पत्ता पीला हो गया.
साख से जो था अटूट बंधन
एक क्षण में ही वह टूट गया .
मलय पवन उठाके अर्थी उसकी
धरती के गर्भ में कर दिया दफ़न
और सर झुककर चढ़ाया कब्र पर
स- बीज एक श्रद्धा - सुमन .
समय चक्र था गतिमान
पावस ने कराया अचेतन बीज को
मधुर मधुर अमृत पान
हरित हो गया कब्र का आँगन.
लेकर पीले पत्ते की शक्ति
और लेकर उसका छुपा हरा - यौवन
फुट पडा बीज अंकुर रूप में और
प्रस्फुटित हुआ पौधा एक नया
लेकर जीवन का नयापन,
पत्ते को मिला एक नव् - जीवन
यही है , यही है , यही है
प्रकृति का नियम ..........
रचना : कालीपद "प्रसाद "
© सर्वाधिकार सुरक्षित
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