चलते चलते अनन्त यात्रा
के राह में
एक अजनबी से मुलाक़ात हो गई
कुछ दूर साथ-साथ चले कि
हम दोनों में दोस्ती हो गई |
कहाँ से आई वह ,मैंने नहीं पूछा
मैं कहाँ से आया ,उसने नहीं पूछा
शायद हम दोनों जानते थे
जवाब किसी के पास नहीं था |
अजनबी थे हम मिलने के पहले
अजनबी रहे हम,जब मिलते रहे
अलविदा के बाद भी अजनबी रहेंगे
जैसे अजनबी थे मिलने के पहले |
सफ़र कितनी लम्बी है?न वो जाने न मैं
छोटी सी इस जीवन-सफ़र में
हर कदम पर रही साथी वो मेरा
और उसका हम सफ़र रहा हूँ मैं |
सुख-दुःख के हर पल को
दिल से लगाकर बनाया अपना
हम दोनों के मिलन का सफ़र
बन गया एक यादगार अफ़साना |
© कालीपद ‘प्रसाद ‘
बहुत बढिया....
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-07-2015) को "मिज़ाज मौसम का" (चर्चा अंक-2044) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद ,डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteहमसफ़र के अजनबी होने की बात को बड़े बढ़िया ढंग से बताया है आपने,समझ नहीं आता कैसे दो अजनबी जीवन की राह में हमकदम बन कर साथ साथ चल पड़ते हैं
ReplyDeletehttp://ghoomofiro.blogspot.in/
जीवन के पहले और जीवन के बाद भी दोनों आत्माएं अजनबी है ! जीवन के दौरान भी एक दुसरे के बारे में सब कुछ कहाँ जान पाते हैं ?
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ReplyDeleteपहले सभी अजनबी रहते हैं लेकिन प्यार से कब अपने हो जाते हैं बहुत बाद में अहसास होता है
बहुत सुन्दर
बहुत सुंदर भाव लिए हुए आप की रचना ।
ReplyDeleteसुंदर !
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