स्वदेश :
जन्मभूमि को कभी भूलो नहीं, यही है स्वदेश
पढ़ लिख कर हुए बड़े, तुम्हारा परिचित परिवेश
एक एक कण रक्त मज्जा, बना इसके अन्न से
कमाओ खाओ कहीं, पर याद रहे अपना देश |
विदेश :
विदेश का सैर सपाटा सब सुहाना लगता है
नए लोग, परिधान नई, दृश्य सबको भाता है
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जिसके मन में यही भावना
विदेश भी उस इंसान को अपना वतन लगता है |
गूगल ,फेसबुक ,व्हाट्स अप आज सबको प्रिय है
इसमें अधिक से अधिक दोस्त बनाने की होड़ है
आत्म केन्द्रित नई पीढ़ी की यही विडम्बना है दोस्त
पड़ोस के फ्लैट में कौन है ,न जानते हैं न पहचानते है |
कालीपद 'प्रसाद'
परिष्कृत कर लो अपने पुराने शब्दकोष को
कोष से बाहर करो सब नकारात्मक शब्दों को
“असमर्थ,अयोग्य हूँ” का सोच है प्रगति के बाधक
जड़ न जमने दो मन में कभी इन विचारों को |
XXXXXX
हर इंसान में “डर” है दो धारी तलवार
यही उत्पन्न करता है नकारात्मक विचार
कभी-कभी इंसान को रोकता है भटकन से,किन्तु
इंसान के प्रगतिशील कदम को रोकता है हरबार | गूगल ,फेसबुक ,व्हाट्स अप आज सबको प्रिय है
इसमें अधिक से अधिक दोस्त बनाने की होड़ है
आत्म केन्द्रित नई पीढ़ी की यही विडम्बना है दोस्त
पड़ोस के फ्लैट में कौन है ,न जानते हैं न पहचानते है |
कालीपद 'प्रसाद'
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