क्या हो गया है हमें
,कभी हम ऐसे तो न थे ,
अनजान मेहमानों को
भी,हम भगवान मानते थे |
भारत भूमि बना वतन,
हर विदेशी आगंतुक का
जो भी अपना मुल्क
छोड़कर, यहाँ वसना चाहा |
उदारता का पाठ, धर्म
गुरुओं ने पढाया था हमें
निस्वार्थ होकर खुद
जियो ,औरों को भी दें जीने|
इस गरिमा को छोड़कर,आचार्य
क्यों स्वार्थी बने
क्यों नहीं जीने
देते, इस मुल्क में मिलजुल कर हमें ?
टूट गया भाईचारा
,सद्भावनाओं का नहीं कोई निशाने
लेकर बन्दुक-पिस्तौल, लगा रहा है एक-दूजे पर निशाने |
धर्मगुरुओं की वाणी
में, नहीं है अब स्नेह-सद्भाव-प्रेम
घृणा,भेद–भाव,निंदा
की भाषा से, हो गया है उनका प्रेम |
भ्रमित हैं ,सहमे
हुए हैं सारे लोग,बंद हैं चार दीवारों में
न जाने कब क्या हो
जाय ,घातक हो कौन से लम्हें
खुद ही इकठ्ठा कर
रखा है ,मौत के सारे सामान
दुश्मनी निभाने में
आगे हैं ,पर नतीजे से हैं अनजान |
कालीपद “प्रसाद “
सर्वाधिकार सुरक्षित
६/१/१५
बहुत सुंदर रचना.
ReplyDeleteसब राजनीति के खेल हैं , मंगलकामनाओं के साथ !
ReplyDeleteअर्थ की तरफ ही भाग रहे हैं हम सब ... वासना ... केवल भूख ...
ReplyDeleteमान्यवर मुझे आपका लेख अच्छा नहीं लगा....
ReplyDeleteस्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए धन्यवाद ! पसन्द आना या न आना व्यक्तिगत प्रश्न है !
Deleteउदार व्यक्ति केलिए "वसुधैव कुटुम्बकम " के आधार पर जो एहसास हुआ उसे व्यक्त किया |उससे आगे कुछनही |
बढ़िया चिंतनशील रचना ...
ReplyDeleteमकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनायें!
मकर संक्रांति की शुभकामनाएँ!!
ReplyDeleteखट्टी-मीठी यादों से भरे साल के गुजरने पर दुख तो होता है पर नया साल कई उमंग और उत्साह के साथ दस्तक देगा ऐसी उम्मीद है। नवर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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