पूर्णिमा का चाँद है
या दूध का कटोरा है
उबलता दूध ज्यों
चाँदनी का उफान है ,
धरती और अम्बर में
फ़ैल गयी है चाँदनी
रजनी भी ओड ली है
दुधिया रंग की ओडनी,
पवन भी मस्त है
रातरानी के इश्क में
अनंग को जगा रहा है
आशिकों के दिल में |
सागर भी उछल रहा है
चाहत है छुए चाँद को
लहर से पीट रहा है
अपने विशाल सीने को |
© कालीपद ‘प्रसाद’
Sunder Rachna
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteबहुत सुंदर.
ReplyDeleteसुन्दर ..
ReplyDeleteआपका आभार डॉ रूपचंद्र शास्त्री जी !
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ।
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