भारत में यह भ्रम है
,कि लोग बहुत धार्मिक है
क्या मंदिर ,मस्जिद
,चर्च जानेवाले सब भक्त हैं ?
संत-साधू के प्रवचन में
,भीड़ तो काफी होती है
कुछ ही होंगे
सच्चरित्र ,बाकी के चरित्र गायब है |
उपदेशों को कोई नहीं
मानता ,न बनते सदाचारी
भ्रष्ट-आचरण, लुट का
साधन, बन जाते हैं भ्रष्टाचारी |
उच्च आदर्श की बात करते हैं ,काम उनके नीच है
कथनी और करनी में,
ज़मीन आसमा का अंतर है |
कौन अच्छा कौन बुरा
,पहचानना मुश्किल है
घर के बाहर सबके
चेहरे ,मुखौटा में छुपे है |
खुले बाज़ार का ज़माना
है ,अपना ढोल पीट रहे हैं
मार्केटिंग का गुर
है ,अपनी तारीफ खुद कर रहे हैं |
अभी-अभी कलम पकड़ा
,खुद को पंडित समझते हैं
गुरु का गुण आया
नहीं, खुद को जगत-गुरु मानते है |
भ्रम में जीते, भ्रम
में मरते, औरों को भी भ्रमित करते हैं
भ्रम का अँधेरा कब
छटेगा, भारत को इसका इंतज़ार है |
© कालीपद ‘प्रसाद’
आप की लिखी ये रचना....
ReplyDelete05/08/2015 को लिंक की जाएगी...
http://www.halchalwith5links.blogspot.com पर....
धन्यवाद कुलदीप ठाकुर जी !
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