आज़ाद हैं यहाँ सभी’
उल्फत ही’ क्यूँ न हो
पावंदी’ भी को’ई
नहीं’ तुहमत ही’ क्यूँ न हो |
मिलते सभी गले ही’
अदावत ही’ क्यूँ न हो
दिल से नहीं हबीब
मुहब्बत ही’ क्यूँ न हो |
हर देश द्रोही’
जिसने’ किया धोखा’ देश से
गद्दार को सज़ा मिले
हिजरत ही’ क्यूँ न हो |
तक़दीर क्या हनोज़
तजुर्बा हुआ नहीं
कुछ तो मिले नसीब,
क़यामत ही’ क्यूँ न हो |
फैले हैं हाथ भक्त
के’ दृग सामने तेरे
कुछ तो मिले अदीम,
हकारत ही’ क्यूँ न हो |
अनुराग यदि पसंद
नहीं, बावफा मेरी
जलवत नसीब में
नहीं’, खल्वत ही’ क्यूँ न हो |
गफलत भरा रिवाजें’
सभी दर्दनाक जो
कर त्याग सभी को’ रिवायत ही’ क्यूँ न हो |कालीपद 'प्रसाद'
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 05 मई 2017 को लिंक की गई है............................... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा.... धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत पंक्तियाँ।
ReplyDeleteजीवन की विद्रूपताएं हों या विकृतियाँ कहीं न कहीं वे अपील करती हैं ज़हन से बाहर आने के लिए। प्रेरक रचना।
ReplyDeleteजीवन की विद्रूपताएं हों या विकृतियाँ कहीं न कहीं वे अपील करती हैं ज़हन से बाहर आने के लिए। प्रेरक रचना।
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