खोजता हूँ तुझे यहाँ वहां
भटका हूँ तेरे लिए न जाने
कहाँ कहाँ !
थक कर बैठ जाता हूँ आँख
मूंदकर
बन्ध आँखों में आता है तु
प्रकाशपुंज बनकर !
सहस्र कोटि सूर्य सम वह तेज
कर देता है मेरी आखों को
निस्तेज !
मेरी आँखों की रश्मि खो जाती
है रश्मिपुंज में
भूलकर अस्तित्व ,मैं खो
जाता हूँ उस ज्योतिपुंज में !
उस प्रकाश पुंज में तुझे ढूंढ़ता हूँ
अहसास होता है ,देख नहीं
पाता,मैं सूरदास हूँ |
निर्बाध विचरण करता हूँ
प्रकाशपुंज में यहाँ-वहां
जैसे महा सागर में विचरती
हैं मछलियाँ !
मुग्ध हूँ ,तेरे खुशबु से
,सब खुशबु से जुदा है
संविलीन हूँ आनंद में
,जिसके लिए जग पागल है !
मुझसे ना छीनो इस आनंद को
महसूस करने दो मुझे इस
परमानंद को !
रहने दो मुझे इस महा समाधि में
तुम तो नहीं मिलते हो किसी
और राह में !
कालीपद "प्रसाद"
सर्वाधिकार सुरक्षित
बहुत सुन्दर ...प्रभू मिलते भी तो इसी राह से हैं !
ReplyDeleteसुंदर !
ReplyDeleteसुन्दर कविता।...मन लुभाने मे समर्थ!!!
ReplyDeleteआपका आभार रविकर जी !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - मंगलवार- 21/10/2014 को
हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 38 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,
आपका आभार दर्शन ज़न्गरा जी !
ReplyDeleteवाह... बेहतरीन
ReplyDeleteManbhawan prastuti ...umdaa!!
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबेहतरीन , सर धन्यवाद !
ReplyDeleteआपकी इस रचना का लिंक दिनांकः 23 . 10 . 2014 दिन गुरुवार को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर दिया गया है , कृपया पधारें धन्यवाद !
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