Tuesday, 16 April 2019

ग़ज़ल

212 1212 1212 1212
छोड़ द्वेष, दोस्ती का’ हाथ तो बढ़ा जरा
प्रेम में छुपा सुगंध जो, उसे लूटा जरा |
ए सनम बता करूं मैं’ क्या, तड़पती’ रात भर
तेरे मेरे दिल जलाती’ आग को बुझा जरा |
तेरी बेवफाई’ से उदास बेकरार है
प्रेयसी अभी खफा खफा उसे हँसा जरा |
प्रेम का निशान कुछ इताब और है झिझक
दोस्ती नई अभी, प्रथम कदम बढ़ा जरा |
गांव में गरीब का मरन, इलाज बिन हुआ
रुग्न दींन गाँव में अभी तू’ दे दवा जरा |
चाह नेता’ का समाज सर्वदा सुखी न हो
दीनता कभी नहीं हटी उसे हटा जरा |
दीन हीन लोग हैं तमाम गांव वासियाँ
मुफलिसी अदीद१  दुख बड़ा, उसे मिटा जरा |

१, अधिक
 
कालीपद 'प्रसाद'

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