जानता हूँ मैं
यह ध्रुव सत्य है,
पुराने दिन कभी
लौटकर नहीं आयगा,
जीवन फिर कभी
पहले जैसा नहीं होगा,
फिर भी ...
जब कभी नया चाँद उगता है
अँधेरी निशा में
चाँद की दुधिया रश्मि
धरती के हर कोने में
दुधिया रंग बिखेर देती है,
मेरे मन में भी
उम्मीद के रंग
भर जाता है |
चाँदनी के उजाले में
मेरा पागल मन-मयूर
नाचने लगता है,
आत्म विस्मृत हो
अतीत के सुनहरे
दिनों में खो जाता है |
भोला मन, भूल जाता है ...
“जीवन के मरुस्थल में
वह प्यास से छटपटा रहा है,
नज़र के सामने गोचर
बालू में जल-ताल नहीं
नज़र का धोखा है
मृग-मरीचिका है,
यह एक भ्रम है|”
मन के सुख के लिये
विवेक की चाहत है,
मन का भ्रम कभी न टूटे
आखरी स्वांस तक
यह खुबसूरत भ्रम
बरकरार रहे |
© कालीपद ‘प्रसाद’
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (10-09-2015) को "हारे को हरिनाम" (चर्चा अंक-2094) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका आभार डॉ रूपचंद्र शास्त्री जी |
ReplyDeleteबेह्तरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteये जीबन यार ऐसा ही ,ये दुनियाँ यार ऐसी ही
संभालों यार कितना भी आखिर छूट जाना है
सभी बेचैन रहतें हैं ,क्यों मीठी बात सुनने को
सच्ची बात कहने पर फ़ौरन रूठ जाना है
समय के साथ बहने का मजा कुछ और है प्यारे
बरना, रिश्तें काँच से नाजुक इनको टूट जाना है
रखोगे हौसला प्यारे तो हर मुश्किल भी आसां है
अच्छा भी समय गुजरा बुरा भी फूट जाना है
बहुत सुन्दर ,जीवन ऐसा ही है
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteखूबसूरत रचना
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