Monday, 4 November 2019

ग़ज़ल

१२२२  १२२२ १२२
सिवा श्रम क्या मिलेगा देहकां से
उगाता है फसल वो शादमां से |
हमेशा झेलते जो रात दिन दुख
झलकता दुख किसानों के फुगाँ से|
कभी ना हौसला खोना यहाँ तुम
गुजरना है सभी को इम्तिहाँ से |
विदेशों में कभी मिलते किसी को
सभो को प्यार होता हमजुबां से |
भले हो शत्रु यह सारा ज़माना
कभी ना दुश्मनी हो राजदां से |
सनम तो है मिजाजी बच के’ रहना
रहो तुम दूर उनकी सरगिराँ से |
पराजय पाकि का तकदीर, सुन लो
कभी तो सीख लें इन पस्तियाँ से |
नहीं डर चोर डाकू का यहाँ अब
बना है गुप्त खतरा पासबाँ से |
मना था फूल चुनना बाग़ से, पर
चुराया फूल डाकू बागबाँ से |
मुहब्बत जख्म से बेजान “काली”
मिलेगा क्या अभी इस नीमजां से |
शब्दार्थ :- देहाकाँ = किसान
शादमां =ख़ुशी, फुगाँ =चीत्कार,रोदन
हमजुबां= एकभाषी, सरगिराँ=गुस्सा
पस्तियाँ =पराजय,पासबाँ=पहरेदार
नीमजां =अधमरा
 कालीपद 'प्रसाद'

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