१२२२ १२२२
१२२
निखारो खूब इस काया-मकां को
दुबारा तो नहीं आना जहां को |
लकीरों के भरोसे काम ना कर
मिटा दो हाथ के सारे निशां को |
खजाना लूटना इतना सहज था ?
मिलाया साथ में उस पासबां को |
बहुत तो बोलते थे, मौन क्यों अब
?
हुआ क्या रहनुमा के उस जुबां को
?
गरीबो में भी’ प्रतिभा होती’ है
पर
उपेक्षा तो धनी करते खूबियाँ को
|
युगों से यह चला आया जगत में
कहाँ सुनता गरीबों की फुगाँ को
?
मनाया जश्न अपनी जीत की सब
सूना क्या मुफलिसों की हिचकियाँ
को ?
विजय से खुश सभी, है जश्न में
मग्न
भुला ‘काली’
मदद की दास्ताँ को |कालीपद 'प्रसाद'
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ नवंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
शुक्रिया आपका स्वेता जी
Deleteलाजवाब गजल है सर्।
ReplyDeleteपासबाँ को साथ लेकर लूट मचाने वाले शेर की बात ही निराली है साब।
कहीं कही रोष फुट पड़ा तो कहीं दुखती रग पर हाथ रखा गया।
कमाल।
मेरी नई पोस्ट पर स्वागत है👉👉 जागृत आँख
This comment has been removed by the author.
Deleteशुक्रिया रोहितास घोरेला जी
ReplyDelete