Thursday, 7 November 2019

ग़ज़ल

१२२२  १२२२  १२२
निखारो खूब इस काया-मकां को
दुबारा तो नहीं आना जहां को |

लकीरों के भरोसे काम ना कर
मिटा दो हाथ के सारे निशां को |

खजाना लूटना इतना सहज था ?
मिलाया साथ में उस पासबां को |

बहुत तो बोलते थे, मौन क्यों अब ?
हुआ क्या रहनुमा के उस जुबां को ?

गरीबो में भी’ प्रतिभा होती’ है पर
उपेक्षा तो धनी करते खूबियाँ को |

युगों से यह चला आया जगत में
कहाँ सुनता गरीबों की फुगाँ को ?

मनाया जश्न अपनी जीत की सब
सूना क्या मुफलिसों की हिचकियाँ को ?

विजय से खुश सभी, है जश्न में मग्न
भुला ‘काली’ मदद की दास्ताँ को |

कालीपद 'प्रसाद'

5 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ नवंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. शुक्रिया आपका स्वेता जी

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  2. लाजवाब गजल है सर्।
    पासबाँ को साथ लेकर लूट मचाने वाले शेर की बात ही निराली है साब।
    कहीं कही रोष फुट पड़ा तो कहीं दुखती रग पर हाथ रखा गया।
    कमाल।

    मेरी नई पोस्ट पर स्वागत है👉👉 जागृत आँख 

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  3. शुक्रिया रोहितास घोरेला जी

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