Tuesday, 2 September 2014

गुस्सा

गुस्सा  न तो दीमक है 
न वह शीत ज्वर है ,
यह तो सैलाब है .........
जो तोड़ देता है वुद्धि का बांध 
उखाड़ देता है विवेक का जड़ 
मनुष्य को बना देता है हिंस्र पशु 
तोड देता है रिश्ते नाते का बंधन सारे 
सब को कर देता  है निमग्न 
बाड  से जैसे नदी के दो किनारे |

मुँह बन जाता है अक्षय तरकश 
निकलता है तीक्ष्ण शब्द वाण 
भेदता है विपक्ष के ह्रदय पटल 
लेने को आतुर उसका प्राण 
किन्तु जब थमता है गुस्सा का ज्वर 
मुँह से निकले शब्द वाण  का 
सोच नहीं पाता  है कोई उत्तर 
पश्चाताप का आंसू चाहे भर दे नदी सारे 
नहीं भर पाता है जो घाव दिए हैं गहरे |

कालीपद "प्रसाद "
सर्वाधिकार सुरक्षित

13 comments:

  1. गुस्सा, सब कुछ तबाह कर देता है ! अंत की 2 पंक्तियाँ बहुत ही अच्छी बन पड़ी हैं !

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  2. Sach Kaha Aapne. Very fine post.
    Welcome to my Post.

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  3. आपका आभार कुलदीप ठाकुर जी !

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  4. गुस्सा सबसे पहले अपना ही नुक्सान करता है
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति

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  5. गुस्से पे कंट्रोल जरूरी है ... ये सैलाब सब कुछ ध्वस्त केर देता है ...

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  6. गुस्से को जिसने जीत लिया समझ लो जग जीत लिया
    सार्थक सच को उजागर करती सुन्दर रचना ---
    सादर ---

    आग्रह है --
    भीतर ही भीतर -------

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  7. पश्चाताप का आंसू चाहे भर दे नदी सारे
    नहीं भर पाता है जो घाव दिए हैं गहरे |
    सुन्दर पंक्तियाँ |शानदार रचना |

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  8. बहुत सार्थक प्रस्तुति...

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  9. Sab khatam kar deta hai gussa ek minute me...saarthak rachna!!!

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